श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: ।
उत्तर- यहाँ जंघा से ऊपर और गले से नीचे के स्थान का नाम ‘काया’ है, गले का नाम ‘ग्रीवा’ है और उसके ऊपर के अंग का नाम ‘सिर’ है। कमर या पेट को आगे-पीछे या दाहिने-बायें किसी ओर भी न झुकाना, अर्थात् रीढ़ की हड्डी को सीधी रखना, गले को भी किसी ओर न झुकाना और सिर को भी इधर-उधन न घुमाना-इस प्रकार तीनों को एक सूत में सीधा रखते हुए जरा भी न हिलने-डुलने देना, यही इन सबको ‘सम’ और ‘अचल’ धारण करना है। प्रश्न- काया आदि के अचल धारण करने के लिये कह देने के बाद फिर स्थिर होने के लिये क्यों कहा गया? क्या इसमें कोई नयी बात है? उत्तर- काया‚ सिर और गले को सम और अचल रखने पर भी हाथ-पैर आदि दूसरे अंग तो हिल ही सकते हैं। इसीलिये स्थिर होने को कहा गया है। अभिप्राय यह है कि ध्यान के समय हाथ-पैरों को किसी भी आसन के नियमानुसार रखा जा सकता है, पर उन्हें ‘स्थिर’ अवश्य रखना चाहिये। किसी भी अंग का हिलना ध्यान के लिये उपयुक्त नहीं है, अतः सब अंगों को अचल रखते हुए सब प्रकार से स्थिर रहना चाहिये। प्रश्न- ‘नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- दृष्टि को अपने नाक की नोक पर जमाये रखना चाहये। न तो नेत्रों को बंद करना चाहिये और न इधर-उधर अन्य किसी अंग को या वस्तु को ही देखना चाहिये। नासिका के अग्रभाग को भी मन लगागर ‘देखना’ विधेय नहीं है। विक्षेप और निद्रा न हो इसलिये केवल दृष्टिमात्र को ही वहाँ लगाना है। मन को तो परमेश्वर में लगाना है, न कि नाक की नोक पर! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘स्थिरसुखमासनम्’ (योग. 2। 46) ‘अधिक काल तक सुखपूर्वक स्थिर बैठा जाय उसे आसन कहते हैं।’
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज