षष्ठ अध्याय
सम्बन्ध- पवित्र स्थान में आसन स्थापन करने के बाद ध्यानयोग के साधक को क्या करना चाहिये, उसे बतलाते हैं-
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12 ।।
उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।।12।।
प्रश्न- यहाँ आसन पर बैठने का कोई खास प्रकार न बतलाकर सामान्यभाव से ही बैठने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘ध्यानयोग’ के साधन के लिये बैठने में जिन नियमों की आवश्यकता है, उनका स्पष्टीकरण अगले श्लोक में किया गया है। उनका पालन करते हुए, जो साधक स्वस्तिक, सिद्ध या पद्म आदि आसनों में से जिस आसन से सुखपूर्वक अधिक समय तक स्थिर बैठ सकता हो उसके लिये वही उपयुक्त है। इसीलिये यहाँ किसी आसन-विशेष का वर्णन न करके सामान्य भाव से बैठने के लिये ही कया गया है।
प्रश्न- ‘यतचित्तेन्द्रियक्रियः’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- चित्त शब्द अन्तःकरण का बोधक है। मन और बुद्धि से जो सांसारिक विषयों का चिन्तन और निश्चय किया जाता है, उसका सर्वथा त्याग करके उनसे उपरत हो जाना ही अन्तःकरण की क्रिया को वश में कर लेना है। तथा ‘इन्द्रिय’ श्रोत्र आदि दसों इन्द्रियों का बोधक है। इन सबको सुनने, देखने आदि से रोक लेना ही उनकी क्रियाओं को वश में कर लेना है।
प्रश्न- मन को एकाग्र करना क्या है?
उत्तर- ध्येय वस्तु में मन की वृत्तियों को भलीभाँति लगा देना ही उसको एकाग्र करना है। यहाँ प्रकरण के अनुसार परमात्मा ही ध्येय वस्तु हैं। अतएव यहाँ उन्हीं में मन लगाने के लिये कहा गया है। इलीलिये चौदहवें श्लोक में ‘मच्चित्तः’ विशेषण देकर भगवान् ने इसी बात को स्पष्ट किया है।
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