श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
‘आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को उद्यत, धन हरण करने वाला, जमीन छीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला- ये छहों आततायी हैं।’ दुर्योधनादि में आततायी के उपर्युक्त लक्षण पूरे पाये जाते हैं। लाक्षा-भवन में आग लगाकर उन्होंने पाण्डवों को जलाने की चेष्टा की थी, भीमसेन के भोजन में विष मिला दिया था, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार थे ही। जूए में छल करके पाण्डवों को समस्त धन और सम्पूर्ण राज्य हर लिया था, अन्यायपूर्वक द्रौपदी को सभा में लाकर उसका घोर अपमना किया था और जयद्रथ उन्हें हरकर ले गया था। इस अवस्था में अर्जुन ने यह कैसे कहा कि इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही लगेगा? उत्तर - इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्मृतिकारों के मत में आततायियों का वध करना दोष नहीं माना गया है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि दुर्योधनादि आततायी भी थे। परंतु कहीं स्मृतिकार ने एक विशेष बात यह कही है- स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात् कुलनाशनम्। ‘जो अपने कुल का नाश करता है, वह सबसे बढ़कर पापी है।’ इन वाक्यों को सामान्य आज्ञा की अपेक्षा कहीं बलवान् समझकर यहाँ अर्जुन यह कह रहे हैं कि ‘धृतराष्ट्र के पुत्र आततायी होने पर भी जब हमारे कुटुम्बी हैं, तब इनको मारने में तो हमें पाप ही होगा और लाभ तो किसी प्रकार भी नहीं है। ऐसी अवस्था में मैं इन्हें मारना नहीं चाहता।’ अर्जुन ने इस अध्याय के अन्त तक इसी बात का स्पष्टीकरण किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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