श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
लभन्ते ब्रह्मानिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।
उत्तर- इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार, राग-द्वेषादि दोष तथा उनकी वृत्तियों के पुंज, जो मनुष्य के अन्तःकरण में इकठ्ठे रहते हैं, बन्धन में हेतु होने के कारण सभी कल्मष-पाप हैं। परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर इन सबका नाश हो जाता है। फिर उस पुरुष के अन्तःकरण में दोष का लेशमात्र भी नहीं रहता। इस प्रकार ‘मल’ दोष का अभाव दिखलाने के लिये ‘क्षीणकल्मषाः’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- ‘छिन्नद्वैधाः’ विशेषण का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘द्वैध’ शब्द संशय या दुविधा का वाचक है, इसका कारण है- अज्ञान। परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर सम्पूर्ण संशय अपने कारण अज्ञान के सहित नष्ट हो जाते हैं। परमात्मा को प्राप्त ऐसे पुरुष के निर्मल अन्तःकरण में, लेशमात्र भी विक्षेप और आवरण-रूपी दोष नहीं रहते। इसी भाव को दिखलाने के लिये ‘छिन्नद्वैधाः’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- ‘यतात्मानः’ पद का क्या भाव है? उत्तर- जिसका वश में किया हुआ मन चंचलता आदि दोषों से सर्वथा रहित होकर परमात्मा के स्वरूप में तद्रूप हो जाता है उसको ‘यतात्मा’ कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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