श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है।[1] सम्पूर्ण जगत् उसी के प्रकाश से प्रकाशित है। जो पुरुष निरन्तर अभिन्न-भाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसी में स्थित रहता है, जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है, वह ‘अन्तज्योर्ति’ है। जिनकी दृष्टि में यह सारा जगत् सत्य भासता है, निद्रावश स्वप्न देखने वालों की भाँति जो अज्ञान के वश होकर दृश्य जगत् का ही चिन्तन करते रहते हैं, वे ‘अन्तज्योर्ति’ नहीं है, क्योंकि परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा उनके लिये अदृश्य है। प्रश्न- यहाँ ‘एव’ का क्या अर्थ है और उसका किस शब्द के साथ सम्बन्ध है? उत्तर- यहाँ ‘एव’ अन्य की व्यावृत्ति करने वाला है। तथा इसका सम्बन्ध ‘अन्तःसुखः’, ‘अन्तरारामः’ और ‘अन्तज्योर्तिः’ इन तीनों के साथ है। अभिप्राय यह है कि बाह्य दृश्य प्रपंच से उस योगी का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि वह परमात्मा में ही सुख, रति और ज्ञान का अनुभव करता है। प्रश्न- ‘ब्रह्मभूतः’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ ‘ब्रह्मभूतः’ पद सांख्ययोगी का विशेषण है। सांख्ययोग का साधन करने वाला योगी अहंकार, ममता और काम-क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरन्तर अभिन्न भाव से परमात्मा का चिन्तन करते-करते जब ब्रह्म रूप हो जाता है, जब उसका ब्रह्म के साथ किंचिन्मात्र भी भेद नहीं रहता, तब इस प्रकार की अन्तिम स्थिति को प्राप्त सांख्ययोगी ‘ब्रह्मभूत’ कहलाता है। प्रश्न- ʺब्रह्मनिर्वाणम्‘ यह पद किसका वाचक है और उसकी प्राप्ति क्या हैॽ उत्तर– ‘ब्रह्म निर्वाणम्’ पद् सच्चिदानन्दघन, निर्गुण, निराकार, निर्विकल्प एवं शान्त परमात्मा का वाचक है और अभिन्न भाव से प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है। सांख्ययोगी की जिस अन्तिम अवस्था का ‘ब्रह्मभूत’ शब्द से निर्देश किया गया है, यह उसी का फल है! श्रुति में भी कहा है- ‘ब्रह्यैव सन् ब्रह्माप्येति’[2] अर्थात् ‘वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है।’ इसी को परम शान्ति की प्राप्ति, अक्षय सुख की प्राप्ति, ब्रह्मप्राप्ति’ मोक्ष प्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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