श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
उत्तर- जो पुरुष अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि समस्त सामान्य धर्मों का तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्यापन, प्रजापालन आदि अपने-अपने वर्णाश्रम-धर्मों का भली-भाँति पालन करते हैं; दूसरों का हित करना ही जिनका स्वभाव है; जो सद्गुणों के भण्डार और सदाचारी हैं तथा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीलादि के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि करने वाले भक्त हैं- उनका वाचक यहाँ ‘साधु’ शब्द है। ऐसे पुरुषों पर जो दुष्ट-दुराचारियों के द्वारा भीषण अत्याचार किये जाते हैं- उन अत्याचारों से उन्हें सर्वथा मुक्त कर देना, उनको उत्तम गति प्रदान करना, अपने दर्शन आदि से उनके समस्त संचित पापों का समूल विनाश करके उनका परम कल्याण कर देना, अपनी दिव्य लीला का विस्तार करके उनके श्रवण, मनन, चिन्तन और कीर्तन आदि के द्वारा सुगमता से लोगों के उद्धार का मार्ग खोल देना आदि सभी बातें साधु पुरुषों का परित्राण अर्थात् उद्धार करने के अन्तर्गत हैं। प्रश्न- यहाँ ‘दुष्कृताम्’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और उनका विनाश करना क्या है? उत्तर- जो मनुष्य निरपराध, सदाचारी और भगवान् के भक्तों पर अत्याचार करने वाले हैं; जो झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार आदि दुर्गुण और दुराचारों के भण्डार हैं; जो नाना प्रकार से अन्याय करके धन का संग्रह करने वाले तथा नास्तिक हैं; भगवान् और वेद-शास्त्रों का विरोध करना ही जिनका स्वभाव हो गया है- ऐसे आसुर स्वभाव वाले दुष्ट पुरुषों का वाचक यहाँ ‘दुष्कृताम्’ पद है। ऐसे दुष्ट प्रकृति के दुराचारी मनुष्यों की बुरी आदत छुड़ाने के लिये या उन्हें पापों से मुक्त करने के लिये उनको किसी प्रकार का दण्ड देना, युद्ध के द्वारा या अन्य किसी प्रकार से उनका इस शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद करना या करा देना आदि सभी बातें उनका विनाश करने के अन्तर्गत हैं। प्रश्न- भगवान् तो परम दयालु हैं; वे उन दुष्टों को समझा-बुझाकर उनके स्वभाव का सुधार क्यों नहीं कर देते? उनको इस प्रकार का दण्ड क्यों देते हैं? उत्तर - उनको दण्ड देने और मार डालने में (आसुर शरीर से उनका सम्बन्ध-विच्छेद कराने में) भी भगवान् की दया भरी है, क्योंकि उस दण्ड और मृत्यु द्वारा भी भगवान् उनके पापों का नाश ही करते हैं। भगवान् के दण्ड-विधान के सम्बन्ध में यह कभी न समझना चाहिये कि उससे भगवान् की दयालुता में किसी प्रकार की जरा-सी भी त्रुटि आती है। जैसे अपने बच्चे के हाथ, पैर आदि किसी अंग में फोड़ा हो जाने पर माता-पिता पहले औषध का प्रयोग करते हैं; पर जब यह मालूम हो जाता है कि अब औषध से इसका सुधार न होगा, देर करने से इसका जहर दूसरे अंगों में भी फेल जायगा, तब वे तुरंत ही अन्य अंगों को बचाने के लिये उस दूषित हाथ-पैर आदि का ऑपरेशन करवाते हैं और आवश्यकता होने पर उसे कटवा भी देते हैं। इसी प्रकार भगवान् भी दुष्टों की दुष्टता दूर करने के लिये पहले उनको नीति के अनुसार दुर्योधन को समझाने की भाँति समझाने की चेष्टा करते हैं, दण्ड का भय भी दिखलाते हैं; पर जब इससे काम नहीं चलता, उनकी दुष्टता बढ़ती ही जाती है, तब उनको दण्ड देकर या मरवाकर उनके पापों का फल भुगताते हैं अथवा जिनके पूर्व संचित कर्म अच्छे होते हैं, किंतु किसी विशेष निमित्त से या कुसंग के कारण जो इस जन्म में दुराचारी हो जाते हैं, उनको अपने ही हाथों मारकर भी मुक्त कर देते हैं। इन सभी क्रियाओं में भगवान् की दया भरी रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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