श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
उत्तर - भगवान् के अवतार का कोई निश्चित समय नहीं होता कि अमुक युग में, अमुक वर्ष में, अमुक महीने में और अमुक दिन भगवान् प्रकट होंगे; तथा यह भी नियम नहीं है कि एक युग में कितनी बार किस रूप में भगवान् प्रकट होंगे। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ ‘यदा’ पद का दो बार प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि के कारण जब जिस समय भगवान् अपना प्रकट होना आवश्यक समझते हैं; तभी प्रकट हो जाते हैं। प्रश्न - वह धर्म की हानि और पाप की वृद्धि किस प्रकार की होती है, जिसके होने पर भगवान् अवतार धारण करते हैं? उत्तर - किस प्रकार की धर्म-हानि और पाप-वृद्धि होने पर भगवान् अवतार ग्रहण करते हैं, उसका स्वरूप वास्तव में भगवान् ही जानते हैं; मनुष्य इसका पूर्ण निर्णय नहीं कर सकता। पर अनुमान से ऐसा माना जा सकता है कि ऋषिकल्प, धार्मिक, ईश्वरप्रेमी, सदाचारी पुरुषों तथा निरपराधी, निर्बल प्राणियों पर बलवान् और दुराचारी मनुष्यों का अत्याचार बढ़ जाना तथा उसके कारण लोगों में सद्गुण और सदाचार का अत्यन्त ह्यस होकर दुर्गुण और दुराचार का अधिक फेल जाना ही धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि का स्वरूप है। सत्ययुग में हिरण्यकशिपु के शासन में जब दुर्गुण और दुराचारों की वृद्धि हो गयी, निरपराधी लोग सताये जाने लगे, लोगों के ध्यान, जप, तप, पूजा, पाठ, यज्ञ, दानादि शुभ कर्म एवं उपासना बलात् बंद कर दिये गये, देवताओं को मार-पीटकर उनके स्थानों से निकाल दिया, प्रह्लाद-जैसे भक्त को बिना अपराध नाना प्रकार के कष्ट दिये गये, उसी समय भगवान् ने नृसिंह रूप धारण किया था और भक्त प्रह्लाद का उद्धार करके धर्म की स्थापना की थी। इसी प्रकार दूसरे अवतारों में भी पाया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज