श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस प्रकार समस्त नदियों का जल जो स्वाभाविक ही समुद्र की ओर बहता है, उसके प्रवाह को हठपूर्वक रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार समस्त प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति के अधीन होकर प्रकृति प्रवाह में पड़े हुए प्रकृति की ओर जा रहे हैं; इसलिये कोई भी मनुष्य हठपूर्वक सर्वथा कर्मों का त्याग नहीं कर सकता। हाँ, जिस तरह नदी के प्रवाह को एक ओर से दूसरी ओर घुमा दिया जा सकता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने उद्देश्य का परिवर्तन करके उस प्रवाह की चाल को बदल सकता है यानी राग-द्वेष का त्याग करके उन कर्मों को परमात्मा की प्राप्ति में सहायक बना सकता है। प्रश्न- ‘प्रकृति’ शब्द का यहाँ क्या अर्थ है? उत्तर- जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो स्वभाव के रूप में प्रकट होते हैं, उस स्वभाव का नाम ‘प्रकृति’ है। प्रश्न- यहाँ ‘ज्ञानवान्’ शब्द किसका वाचक है? उत्तर- परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को जानने वाले भगवत्-प्राप्त महापुरुष का वाचक यहाँ ‘ज्ञानवान्’ पद है। प्रश्न- ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘अपि’ पद के प्रयोग से यह भाव दिखलाया है कि जब समस्त गुणों से अतीत ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, तब जो अज्ञानी मनुष्य प्रकृति के अधीन हो रहे हैं, वे प्रकृति के प्रवाह को हठपूर्वक कैसे रोक सकते हैं। प्रश्न- क्या परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महापुरुषों के स्वभाव भी भिन्न-भिन्न होते हैं? उत्तर- अवश्य ही सबके स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं, पूर्व साधन और प्रारब्ध के भेद से स्वभाव में भेद होना अनिवार्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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