श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- पूर्व श्लोक में वर्णित साधकों से अत्यन्त विपरीत चलने वाले मनुष्यों की गति इस श्लोक में बतलायी जाती है, इसी भाव का द्योतक यहाँ ‘तु’ पद है। प्रश्न- भगवान में दोषारोपण करते हुए भगवान् के मत के अनुसार न बरतना क्या है? उत्तर- भगवान को साधारण मनुष्य समझकर उनमें ऐसी भावना करना या दूसरों से ऐसा कहना कि ‘ये अपनी पूजा कराने के लिये इस प्रकार का उपदेश देते हैं; समस्त कर्म इनके अर्पण कर देने से ही मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता हो, ऐसा कभी नहीं हो सकता’ आदि-आदि-यह भगवान् में दोषारोपण करना है और ऐसा समझकर भगवान् के कथनानुसार ममता, आसक्ति और कामना का त्याग न करना, कर्मों को परमेश्वर के अर्पण न करे अपनी इच्छा के अनुसार कर्मों में बरतना और शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देना-यही भगवान् में दोषारोपण करते हुए उनके मत के अनुसार न चलना हैं। प्रश्न- ‘अचेतसः’ पद किस श्रेणी के मनुष्यों का वाचक है और उनके सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित तथा नष्ट हुए समझने के लिये कहने का क्या भाव है? उत्तर- जिनके मन दोषों से भरे हैं, जिनमें विेवेक का अभाव है और जिनका चित्त वश में नहीं है, ऐसे मूर्ख, तामसी मनुष्यों का वाचक ‘अचेतसः’ पद है। उनको सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए समझने के लिये कहने का यह भाव है कि ऐसे मनुष्यों की बुद्धि विपरीत हो जाती है, वे लौकिक और पारलौकिक सब प्रकार के सुख-साधनों को विपरीत ही समझने लगते हैं; इसी कारण वे विपरीत आचरणों में प्रवृत्त हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप उनका इस लोक और परलोक में पतन हो जाता है, वे अपनी वर्तमान स्थिति से भी भ्रष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद उनको अपने कर्मों का फल भोगने के लिये सूकर-कूकरादि नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है या घोर नरकों में पड़कर भयानक यन्त्रणाएँ भोगनी पड़ती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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