तृतीय अध्याय
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ।। 11 ।।
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ।। 11 ।।
प्रश्न- ‘अनेन’ पद यहाँ किसका वाचक है और उसके द्वारा देवताओं को उन्नत करना क्या है?
उत्तर- ‘अनेन’ पद जिसका प्रकरण चल रहा है, उस स्वधर्मरूप यज्ञ का ही वाचक है; किंतु यहाँ जिस यज्ञ में वेद-मन्त्रों द्वारा देवताओं को हविष्य दिया जाता है, उसको उपलक्षण बनाकर स्वधर्म पालन रूप यज्ञ की अवश्य कर्तव्यता का प्रतिपादन किया गया है; इसलिये उपलक्षण रूप से इसे हवन रूप यज्ञ का वाचक समझना चाहिये और उस हवनरूप यज्ञ के द्वारा देवताओं को हवि पहुँचाकर पुष्ट करना एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही उनको उन्नत करना है, ऐसा समझना चाहिये। एवं यह वर्णन उपलक्षण के रूप में होने के कारण यज्ञ का अर्थ स्वधर्म समझकर अपने-अपने वर्णाश्रम के अनुसार कर्तव्य पालन के द्वारा प्रत्येक ऋषि, पितर, भूत-प्रेत, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी प्राणियों को सुख पहुँचाना, उनकी उन्नति करना भी इसी के अन्तर्गत समझना चाहिये।
प्रश्न- वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करें, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार यज्ञ के द्वारा देवताओं को पुष्ट करना तुम्हारा कर्तव्य है, उसी प्रकार तुम लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करके तुम लोगों को उन्नत करना देवताओं का भी कर्तव्य है। इसलिये उनको भी मेरा यही उपदेश है कि वे अपने कर्तव्य का पालन करते रहें।
प्रश्न- निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से ब्रह्मा जी ने यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार अपने-अपने स्वार्थ का त्याग करके एक-दूसरे को उन्नत बनाने के लिये अपने कर्तव्य का पालन करने से तुम लोग इस सांसारिक उन्नति के साथ-साथ परम कल्याण रूप मोक्ष को भी प्राप्त हो जाओगे। अभिप्राय यह है कि यहाँ देवताओं के लिये तो ब्रह्मा जी का यह आदेश है कि मनुष्य यदि तुम लोगों की सेवा, पूजा, यज्ञादि न करें तो भी तुम कर्तव्य समझकर उनकी उन्नति करो और मनुष्यों के प्रति यह आदेश है कि देवताओं की उन्नति और पुष्टि के लिये ही स्वार्थत्यागपूर्वक देवताओं की सेवा, पूजा, यज्ञादि कर्म करो। इसके सिवा अन्य ऋषि, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि को भी निःस्वार्थभाव से स्वधर्म पालन के द्वारा सुख पहुँचाओ।
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