तृतीय अध्याय
प्रश्न- समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करना क्या है?
उत्तर- समस्त विहित कर्मों में तथा उनके फलरूप इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में राग-द्वेष का त्याग करके एवं सिद्धि-असिद्धि में सम होकर, वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का ग्रहण करते हुए जो यज्ञ, दान, तप, अध्ययन, अध्यापन, प्रजापालन, लेन-देनरूप व्यापार और सेवा एवं खाना-पीना, सोना-जागना, चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि समस्त इन्द्रियों के कर्म शास्त्रविधि के अनुसार करते रहना है, यही समस्त इन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करना है। दूसरे अध्याय के चौंसठवें श्लोक में इसी का फल प्रसाद की प्राप्ति और समस्त दुःखों का नाश बतलाया गया है।
प्रश्न- ‘स विशिष्यते’ का क्या भाव है? क्या यहाँ कर्मयोगी को पूर्व श्लोक में वर्णित मिथ्याचारी की अपेक्ष श्रेष्ठ बतलाया गया है?
उत्तर- ‘स विशिष्यते’ से यहाँ कर्मयोगी के समस्त साधारण मनुष्यों से श्रेष्ठ बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है। यहाँ इसका अभिप्राय कर्मयोगी को पूर्ववर्णित केवल मिथ्याचारी की अपेक्षा ही श्रेष्ठ बतलाना नहीं है; क्योंकि पूर्व श्लोक में वर्णित मिथ्याचारी तो आसुरी सम्पदा वाला दम्भी है। उसकी अपेक्षा तो सकामभाव से विहित कर्म करने वाला मनुष्य भी बहुत श्रेष्ठ है; फिर दैवी सम्पदायुक्त कर्मयोगी को मिथ्याचारी की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाना तो किसी वेश्या की अपेक्षा सती स्त्री को श्रेष्ठ बतलाने की भाँति कर्मयोगी की स्तुति में निन्दा करने के समान है। अतः यहाँ यही मानना ठीक है कि ‘स विशिष्यते’ से कर्मयोगी को सर्वश्रेष्ठ बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है।
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