तृतीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार केवल ऊपर से इन्द्रियों को विषयों से हटा लेने को मिथ्याचार बतलाकर, अब आसक्ति का त्याग करके इन्द्रियों द्वारा निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म करने वाले योगी की प्रशंसा करते हैं-
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते ।। 7 ।।
किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।। 7 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘तु’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- ऊपर से कर्मों का त्याग करने वाले की अपेक्षा स्वरूप से कर्म करते रहकर इन्द्रियों को वश में रखने वाले योगी की विलक्षणता बतलाने के लिये यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- यहाँ ‘इन्द्रियाणि’ और ‘कर्मेन्द्रियैः’- इन दोनों पदों से कौन-सी इन्द्रियों का ग्रहण है?
उत्तर- यहाँ दोनों ही पद समस्त इन्द्रियों के वाचक हैं; क्योंकि न तो केवल पाँच इन्द्रियों को वश में करने से इन्द्रियों का वश में करना ही सिद्ध होता है और न केवल पाँच इन्द्रियों से कर्मयोग का अनुष्ठान ही हो सकता है; क्योंकि देखना, सुनना आदि के बिना कर्मयोग का अनुष्ठान सम्भव नहीं। इसलिये उपर्युक्त दोनों पदों से सभी इन्द्रियों का ग्रहण है। इस अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भी भगवान् ने ‘इन्द्रियाणि’ पद के साथ ‘नियम्य’ पद का प्रयोग करके सभी इन्द्रियों को वश में करने की बात कही है।
प्रश्न- यहाँ ‘नियम्ब’ पद का अर्थ ‘वश में करना’ न लेकर ‘रोकना’ लिया जाय तो क्या आपत्ति है?
उत्तर- ‘रोकना’ अर्थ यहाँ नहीं बन सकता; क्योंकि इन्द्रियों को रोक लेने पर फिर उनसे कर्मयोग का आचरण नहीं किया जा सकता।
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