श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
उत्तर- इससे अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि अब तक आपने मुझे जितना उपदेश दिया है, उसमें विरोध प्रतीत होने से मैं अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सका हूँ। मेरी समझ में यह बात नहीं आयी है कि आप मुझे युद्ध के लिये आज्ञा दे रहे हैं या समस्त कर्मों का त्याग कर देने के लिये; यदि युद्ध करने के लिये कहते हैं तो किस प्रकार करने के लिये कहते हैं और यदि कर्मों का त्याग करने के लिये कहते हैं तो उनका त्याग करने के बाद फिर क्या करने की आज्ञा देते हैं। इसलिये आप सब प्रकार से सोच-समझकर मेरे कर्तव्य का निश्चय करके मुझे एक ऐसा निश्चित साधन बतला दीजिये कि जिसका पालन करने से मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ। प्रश्न- यहाँ ‘श्रेयः’ पद का अर्थ ‘कल्याण’ करने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ श्रेयः प्राप्ति से अर्जुन का तात्पर्य इस लोक या परलोक के भोगों की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि ‘भूमिका निष्कण्टक राज्य और देवों का आधिपत्य मेरे शोक को दूर नहीं कर सकते’[1] यह बात तो उन्होंने पहले ही कह दी थी। अतएव श्रेयः प्राप्ति से उनका अभिप्राय शोक-मोह का सर्वथा नाश करके शाश्वती शान्ति और नित्यानन्द प्रदान करने वाली नित्यवस्तु की प्राप्ति से है, इसीलिये यहाँ ‘श्रेयः’ पद का अर्थ ‘कल्याण’ किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 8
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