द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार अयुक्त पुरुष की बुद्धि के विचलित होने का प्रकार बतलाकर अब पुनः स्थितप्रज्ञअवस्था की प्राप्ति में सब प्रकार से इन्द्रिय संयम की विशेष आवश्यकता सिद्ध करते हुए स्थितप्रज्ञ पुरुष की अवस्था का वर्णन करते हैं-
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। 68 ।।
इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ।। 68 ।।
प्रश्न- ‘तस्मात्’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- पूर्वश्लोक में यह बात कही गयी है कि जिसके मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उस विषयासक्त मनुष्य की इन्द्रियाँ उसके मन को विषयों में आकर्षित करके बुद्धि को विचलित कर देती हैं, स्थिर नहीं रहने देतीं। इसलिये मन और इन्द्रियों को अवश्य वश में करना चाहिये, यह भाव दिखाने के लिये यहाँ ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- ‘महाबाहो’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर- जिसकी भुजाएँ लंबी, मजबूत और बलिष्ठ हों, उसे:‘महाबाहु’ कहते हैं। यह सम्बोधन शूरवीरता का द्योतक है। यहाँ इस सम्बोधन का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम बड़े शूरवीर हो, अतएव इन्द्रियों और मन को वश में कर लेना तुम्हारे लिये कोई बड़ी बात नहीं है।
प्रश्न- इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सर्व प्रकार से ‘निगृहीत’ कर लेना क्या है?
उत्तर- श्रोत्रादि समस्त इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, उन विषयों में बिना किसी रुकावट के प्रवृत्त हो जाना इन्द्रियों का स्वभाव है; क्योंकि अनादिकाल से जीव इन इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगता आया है, इस कारण इन्द्रियों की उनमें आसक्ति हो गयी है। इन्द्रियों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को सर्वथा रोक देना, उनके विषय लोलुप स्वभाव को परिवर्तित कर देना, उनमें विषयासक्ति का अभाव कर देना और मन बुद्धि को विचलित करने की शक्ति न रहने देना यही उनको उनके विषयों से सर्वथा निगृहीत कर लेना है। इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ वश में की हुई होती हैं, वह पुरुष जब ध्यानकाल में इन्द्रियों की क्रियाओं का त्याग कर देता है, उस समय उसकी कोई भी इन्द्रिय न तो किसी भी विषय को ग्रहण कर सकती है और न अपनी सूक्ष्मवृत्तियों द्वारा मन में विक्षेप ही उत्पन्न कर सकती है। उस समय वे मन में तद्रूप-सी हो जाती हैं और व्युत्थानकाल में जब वह देखना-सुनना आदि इन्द्रियों की क्रिया करता रहता है, उस समय वे बिना आसक्ति के नियमित रूप से यथायोग्य शब्दादि विषयों को ग्रहण करती है।
किसी भी विषय में उसके मन को आकर्षित नहीं कर सकती वरं मन का ही अनुसरण करती हैं। स्थितप्रज्ञ पुरुष लोक संग्रह के लिये जिस इन्द्रिय के द्वारा जितने समय तक जिस शास्त्रसम्मत विषय को ग्रहण करना उचित समझता है, वही इन्द्रिय उतने ही समय तक उसी विषय को ग्रहण करती है; उसके विपरीत कोई भी इन्द्रिय किसी भी विषय को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार जो इन्द्रियों पर पूर्ण आधिपत्य कर लेता है; उसकी स्वतन्त्रता को सर्वथा नष्ट करके उनको अपने अनुकूल बना लेना है- यही इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से निगृहीत कर लेना है।
|