द्वितीय अध्याय
प्रश्न- सब इन्द्रियों द्वारा बुद्धि के विचलित किये जाने की बात न कहकर एक इन्द्रिय के द्वारा ही बुद्धि का विचलित किया जाना कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- इससे इन्द्रियों की प्रबलता दिखलायी गयी है। अभिप्राय यह है कि सब इन्द्रियाँ मिलकर मनुष्य की बुद्धि को विचलित कर दें, इसमें तो कहना ही क्या है; जिस इन्द्रिय के साथ मन रहता है, वह एक ही इन्द्रिय बुद्धि को विषय में फँसाकर विचलित कर देती है। देखा भी जाता है कि एक कर्णेन्द्रिय के वश होकर मृग, स्पर्शेन्द्रिय के वश होकर हाथी, चक्षु-इन्द्रिय के वश होकर पतंग, रसना इन्द्रिय के वश होकर मछली और घ्राणेन्द्रिय के वश में होकर भ्रमर- इस प्रकार केवल एक-एक इन्द्रिय के वश में होने के कारण ये सब अपने प्राण खो बैठते हैं। इसी तरह मनुष्य की बुद्धि भी एक-एक इन्द्रिय के द्वारा ही विचलित की जा सकती है।
प्रश्न- वहाँ ‘यत्’ और ‘तत्’ का सम्बन्ध ‘मन’ के साथ क्यों न माना जाय?
उत्तर- यहाँ ‘इन्द्रियाणाम्’ पद में ‘निर्धारणे षष्ठी’ है, अतः इन्द्रियों में से जिस एक इन्द्रिय के साथ मन रहता है, उसी के साथ ‘यत्’ पद का सम्बन्ध मानना उचित है और ‘यत्’ ‘तत्’ का नित्य सम्बन्ध है, अतः ‘तत्’ का सम्बन्ध भी इन्द्रिय के साथ ही होगा। ‘अनु विधीयते’ में ‘अनु’ उपसर्ग नहीं, कर्मप्रवचनीयसंज्ञक अव्यय है, अतः उसके योग में ‘यत्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है और कर्मकर्तृप्रक्रिया के अनुसार ‘विधीयते’ का कर्मभूत ‘मनः’ पद ही कर्ता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त अगले श्लोक में ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके इन्द्रियों को वश में करने वाले की बुद्धि स्थिर बतलायी गयी है, इसलिये भी यहाँ ‘यत्’ और ‘तत्’ पदों का इन्द्रिय के साथ ही सम्बन्ध मानना अधिक युक्तिसंगत मालूम होता है।
प्रश्न- अकेला मन या अकेली इन्द्रिय बुद्धि के हरण करने में समर्थ है या नहीं?
उत्तर- मन के साथ हुए बिना अकेली इन्द्रिय बुद्धि को नहीं हर सकती; हाँ मन इन्द्रियों के बिना अकेला भी बुद्धि को हर सकता है।
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