श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- जिसकी गीताशास्त्र को सुनने की इच्छा न हो, उसका वाचक यहाँ ‘अशुश्रूषवे’ पद है। उसे सुनाने की मनाही करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यदि कोई अपने धर्म का पालनरूप तप भी करता हो किन्तु गीताशास्त्र में श्रद्धा और प्रेम न होने के कारण वह उसे सुनना न चाहता हो, तो उसे भी यह परम गोपनीय शास्त्र नहीं सुनाना चाहिये; क्योंकि ऐसा मनुष्य उसको सुनने से ऊब जाता है और उसे ग्रहण नहीं कर सकता, इससे मेरे उपदेश का और मेरा अनादर होता है। प्रश्न- जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उसे तो कभी भी नहीं कहना चाहिये- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि संसार का उद्धार करने के लिये सगुणरूप से प्रकट मुझ परमेश्वर में जिसकी दोषदृष्टि है, जो मेरे गुणों में दोषारोपण करके मेरी निन्दा करने वाला है- ऐसे मनुष्य को तो किसी भी हालत में यह उपदेश नहीं सुनना चाहिये; क्योंकि वह मेरे गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य को न सह सकने के कारण इस उपदेश को सुनकर मेरी पहले से भी अधिक अवज्ञा करेगा, इससे अधिक पाप का भागी होगा। प्रश्न- उपर्युक्त चारों दोष जिसमें हों, उसी को यह उपदेश नहीं कहना चाहिये या चारों में से जिसमें एक, दो या तीन दोष हों- उसको भी नहीं सुनाना चाहिये? उत्तर- चारों में से एक भी दोष जिसमें नहीं है, वह तो इस उपदेश का पूरा अधिकारी है ही; इसके सिवा जिसमें स्वधर्मपालनरूप तप की कमी हो, पर उसके बाद के तीन दोष नहीं हों तो वह भी अधिकारी है तथा जो न तो तपस्वी हो और न भगवान् का पूर्ण भक्त ही हो, परन्तु गीता सुनना चाहता हो तो वह भी किसी अंश में अधिकारी है। किन्तु जो भगवान् में दोष दृष्टि रखता है- उनकी निन्दा करता है, वह तो सर्वथा अनधिकारी है; उसे तो कभी भी नहीं कहना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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