श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
उत्तर- ‘इमम्’ पद यहाँ गीतोक्त समस्त उपदेश का वाचक है। उसके साथ ‘परमम्’ और ‘गुह्यम्’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यह उपदेश मनुष्य को संसार-बन्धन से छुड़ाकर साक्षात् मुझ परमेश्वर की प्राप्ति कराने वाला होने से अत्यन्त ही श्रेष्ठ और गुप्त रखने योग्य है। प्रश्न- ‘मद्भक्तेषु’ पद किनका वाचक है और इसका प्रयोग करके यहाँ क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर- जिनकी भगवान् में श्रद्धा है; जो भगवान् को समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले, सर्वशक्तिमान, और सर्वेश्वर समझकर उनमें प्रेम करते हैं; जिनके चित्त में भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला और तत्त्व की बातें सुनने की उत्सुकता रहती है और सुनकर प्रसन्नता होती है- उनका वाचक यहाँ ‘मद्भक्तेषु’ पद है। इसका प्रयोग करके यहाँ गीता के अधिकारी का निर्णय किया गया है। अभिप्राय यह है कि जो मेरा भक्त होता है, उसमें पूर्वश्लोक में वर्णित चारों दोषों का अभाव अपने-आप हो जाता है। इसलिये जो मेरा भक्त है, वही इसका अधिकारी है तथा सभी मनुष्य-चाहें किसी भी वर्ण और जाति के क्यों न हों- मेरे भक्त बन सकते हैं[1]; अतः वर्ण और जाति आदि के कारण इसका कोई भी अनधिकारी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9। 32
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