श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- इस कथन से प्रेममय भगवान् ने उपर्युक्त प्रतिज्ञा करने का हेतु बतलाया है। अभिप्राय यह है कि तुम मुझको बहुत ही प्यारे हो; तुम्हारे प्रति मेरा जो प्रेम है, उस प्रेम से ही बाध्य होकर तुम्हारा विश्वास दृढ़ कराने के लिये मैं तुमसे यह प्रतिज्ञा करता हूँ; नहीं तो इस प्रकार प्रतिज्ञा करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं थी।[1] प्रश्न- इस श्लोक में भगवान् ने जो चार साधन बतलाये हैं, उन चारों के करने से ही भगवान् की प्राप्ति होती है या इसमें से एक-एक से भी हो जाती है? उत्तर- जिसमें चारों साधन पूर्णरूप से होते हैं, उसको भगवान् की प्राप्ति हो जाय- इसमें तो कहना ही क्या है; परन्तु इनमें से एक-एक साधन से भी भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि भगवान् ने स्वयं ही आठवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में केवल अनन्य चिन्तन से अपनी प्राप्ति को सुलभ बतलाया है; सातवें अध्याय के तेईसवें और नवें के पचीसवें में अपने भक्त को अपनी प्राप्ति बतलायी है और नवें अध्याय के छब्बीसवें से अट्ठाईसवें तक एवं इस अध्याय के छियालीसवें श्लोक में केवल पूजन से अपनी प्राप्ति बतलायी है। यह बात अवश्य है कि उपर्युक्त एक-एक साधन को प्रधानरूप से करने वाले में दूसरी सब बातें भी आनुषंगिक-रूप से रहती ही हैं और श्रद्धा-भक्ति का भाव तो सभी में रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन महात्मा अर्जुन के लिये भगवान् ने स्वयं अपने श्रीमुख से गीता का दिव्य उपदेश किया, उनकी महिमा का कौन वर्णन कर सकता है। महाभारत, उद्योगपर्व में कहा है-
एष नारायणः कृष्णः फाल्गुनश्च नरः स्मृतः। नारायणो नरश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम्।। (49।20) ‘ये श्रीकृष्ण साक्षात् नारायण हैं और अर्जुन नर कहे गये हैं; ये नारायण और नर दो रूपों में प्रकट एक ही सत्त्व हैं।’ यहाँ संक्षेप में यह दिखलाना है कि अर्जुन के प्रति भगवान् का कितना प्रेम था। इसी से पता लग जायगा कि अर्जुन भगवान् से कितना प्रेम करते थे। वनविहार, जलविहार, राजदरबार, यज्ञानुष्ठान आदि में भी भगवान् श्रीकृष्ण प्रायः अर्जुन के साथ रहते थे। उनका परस्पर इतना मेल था कि अन्तःपुर तक में पवित्र और विशुद्ध प्रेम के संकोचरहित दृश्य देखे जाते थे। संजय ने पाण्डवों के यहाँ से लौटकर धृतराष्ट्र से कहा था- ‘श्रीकृष्ण-अर्जुन का मैंने विलक्षण प्रेम देखा है; मैं उन दोनों से बातें करने के लिये बड़े ही विनीत भाव से उनके अन्तःपुर में गया! मैंने जाकर देखा वे दोनों महात्मा उत्तम वस्त्राभूषणों से भूषित होकर महामूल्यवान आसनों पर विराजमान थे। अर्जुन की गोद में श्रीकृष्ण के चरण थे और द्रौपदी तथा सत्यभामा की गोद में अर्जुन के दोनों पैर थे! मुझे देखकर अर्जुन ने अपने पैर के नीचे का सोने का पीढ़ा सरकाकर मुझे बैठने को कहा, मैं आदर के साथ उसे छूकर नीचे ही बैठ गया।’ वन में भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों से मिलने गये और वहाँ बातचीत के सिलसिले में उन्होंने अर्जुन से कहा-
ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते। यस्त्वां द्वेष्टि स मां ,द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु।। (महा., वन. 12।45) ‘हे अर्जुन! तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे ही हैं। अर्थात् जो कुछ मेरा है, उस पर तुम्हारा अधिकार है। जो तुमसे शत्रुता रखता है, वह मेरा शत्रु है और जो तुम्हारा अनुवर्ती (साथ देने वाला) है, वह मेरा भी है।’ भीष्म को पाण्डव सेना का संहार करते जब नौ दिन बीत गये, तब रात्रि के समय युधिष्ठिर ने बहुत ही चिन्तित होकर भगवान् से कहा- ‘हे श्रीकृष्ण! भीष्म से हमारा लड़ना वैसा ही है जैसा जलती हुई आग की ज्योति पर पतंगों का मरने के लिये टूट पड़ना। आप कहिये अब क्या करें।’ इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप चिन्ता न करें, मुझे आज्ञा दें तो मैं भीष्म को मार डालूँ। आप निश्चय मानिये कि अर्जुन भीष्म को मार देंगे।’ फिर अर्जुन के साथ अपने प्रेम का सम्बन्ध जताते हुए भगवान् ने कहा-
त्व भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एव च। मांसान्युत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते।।
एष चापि नरव्याघ्रो मत्कृते जीवितं त्यजेत्। एष नः समयस्तात तारयेम परस्परम्।। (महा., भीष्म. 107।33-34)
‘हे राजन्! आपके भाई अर्जुन मेरे मित्र हैं, सम्बन्धी हैं और शिष्य हैं। मैं अर्जुन के लिये अपने शरीर का मांस तक काटकर दे सकता हूँ। पुरुषसिंह अर्जुन भी मेरे लिये प्राण दे सकते हैं। हे तात! हम दोनों मित्रों की यह प्रतिज्ञा है कि परस्पर एक दूसरे को संकट से उबारें।’ इससे पता लग सकता है कि भगवान् श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ कैसा विलक्षण प्रेम का सम्बन्ध था।इन्द्र से प्राप्त एक अमोघ शक्ति कर्ण के पास थी। इन्द्र ने कह दिया था कि ‘इस शक्ति को तुम जिस पर छोड़ोगे, उसकी निश्चय ही मृत्यु हो जायगी। परन्तु इसका प्रयोग एक ही बार होगा।’ कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन को मारने के लिय रख छोड़ी थी। दुर्योधनादि उनसे बार-बार कहते कि ‘तुम शक्ति का प्रयोग करके अर्जुन को मार क्यों नहीं डालते?’ कर्ण अर्जुन को मारने की इच्छा भी करते, परन्तु सामने आते ही अर्जुन के रथ पर सारथिरूप में बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्ण कर्ण पर ऐसी मोहिनी डालते कि जिससे वे शक्ति का प्रयोग करना भूल जाते। जब भीमपुत्र घटोत्कच ने राक्षसी माया से कौरवसेना का भीषणरुप से संहार किया, तब दुर्योधन आदि सब घबड़ा गये। सभी ने कर्ण को पुकार कर कहा- ‘इन्द्र की शक्ति का प्रयोग कर पहले इसे मारो, जिससे हम लोगों के प्राण तो बचें। इस आधी रात के समय यदि यह राक्षस हम सबको मार ही डालेगा तब अर्जुन को मारने के लिये रखी हुई शक्ति हमारे किस काम आवेगी ?’ अतः कर्ण को वह शक्ति घटोत्कच पर छोड़नी पड़ी और शक्ति के लगते ही घटोत्कच मर गया। घटोत्कच की मृत्यु से सारा पाण्डव-परिवार दुःखी हो गया, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और वे हर्षोन्मत्त-से होकर बार-बार अर्जुन को हृदय से लगाने लगे। आगे चलकर उन्होंने सात्यकि से कहा- ‘हे सात्यके! युद्ध के समय कर्ण को मैं ही मोहित कर रखता था। इसी से आज तक वह अर्जुन पर उस शक्ति का प्रयोग न कर सका। अर्जुन को मारने में समर्थ वह शक्ति जब तक कर्ण के पास थी, तब तक मैं सदा चिन्तित रहता था। चिन्ता के मारे न मुझे रात को नींद आती थी और न चित्त में कभी हर्ष ही होता था। आज उस अमोघ शक्ति को व्यर्थ हुई जानकर मैं अर्जुन को काल के मुख से बचा हुआ समझता हूँ। देखो-माता-पिता, तुम लोग, भाई-बन्धु और मेरे प्राण भी मुझे अर्जुन से बढ़कर प्रिय नहीं हैं। मैं जिस प्रकार रण में अर्जुन की रक्षा करना आवश्यक समझता हूँ, उस प्रकार किसी की नहीं समझता। तीनों लोकों के राज्य की अपेक्षा भी अधिक दुर्लभ कोई वस्तु हो तो उसे भी मैं अर्जुन को छोड़कर नहीं चाहता। इस समय अर्जुन का पुनर्जन्म-सा हो गया देखकर मुझे बड़ा भारी हर्ष हो रहा है।’
त्रैलोक्यराज्याघत्किज्चिभ्दवेदन्यत्सुदुर्लभम्। नेच्छेयं सात्वताहं तद्विना पार्थं धनज्जयम्।।
अतः प्रहर्ष सुमहान् युयुधानाद्य मेऽभवत्। मृतं प्रत्यागतमिव दृष्ट्वा पार्थं धनज्जयम्।। (महा., द्रोण. 182।44-45)
श्रीकृष्ण और अर्जुन की मैत्री इतनी प्रसिद्ध थी कि स्वयं दुर्योधन ने भी एक बार ऐसा कहा था-
आत्मा हि कृष्णः पार्थस्य कृष्णस्यात्मा धनज्जयः।।
यद् ब्रूयादर्जुनः कृष्णं सर्वं कुर्यादसंशयम्।
कृष्णो धनज्जयस्यार्थे स्वर्गलोकमपि त्यजेत्।।
तथैव पार्थः कृष्णार्थें प्राणानपि परित्यजेत्। (महा., सभा. 52।31-33)
‘श्रीकृष्ण अर्जुन के आत्मा हैं और अर्जुन श्रीकृष्ण के। अर्जुन श्रीकृष्ण को जो कुछ भी करने को कहें, श्रीकृष्ण वह सब कर सकते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। श्रीकृष्ण अर्जुन के लिये दिव्यलोक का भी त्याग कर सकते हैं तथा इसी प्रकार अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिये प्राणों का परित्याग कर सकते हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुन की आदर्श प्रीति के और भी बहुत-से उदाहरण हैं। इसके लिये महाभारत और श्रीमद्भागवात के उन-उन स्थलों को देखना चाहिये। अर्जुन के इस विलक्षण प्रेम का ही प्रभाव है, जिसके कारण भगवान् को गुह्याद्गुह्यतर ज्ञान की अपेक्षा भी अत्यन्त गुह्य सर्वगुह्यतम अपने पुरुषोत्तम स्वरूप का रहस्य अर्जुन के सामने खोल देना पड़ा और इस प्रेम का ही प्रताप है कि परम धाम में भी अर्जुन को भगवान् की अत्यन्त दुर्लभ सेवा का ही सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसके लिये बड़े-बड़े ब्रह्मवादी महापुरुष भी ललचाते रहते हैं। स्वर्गारोहण के अनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर ने दिव्य देह धारण कर परम धाम में देखा-
ददर्श तत्र गोविन्दं ब्राह्मेण वपुषान्वितम्।।
दीप्यमानं स्ववपुषा दिव्यैरस्त्रैरुपस्थितम्।
चक्रप्रभृतिभिशरैर्दिव्यैः पुरुषविग्रहैः।।
उपास्यमानं वीरेण फाल्गुनेन सुवर्चसा। (महा., स्वर्गा. 4। 2-4)
‘भगवान् श्रीगोविन्द वहाँ अपने ब्राह्मशरीर से युक्त हैं। उनका शरीर देदीप्यमान है। उदके समीप चक्र आदि दिव्य शस्त्र और अन्यान्य घोर अस्त्र दिव्य पुरुष-शरीर धारण कर उनकी सेवा कर रहे हैं! महान् तेजस्वी वीर अर्जुन के द्वारा भी भगवान् सेवित हो रहे हैं।’ यही ‘परम फल’ है गीतातत्त्व के भली-भाँति सुनने, समझने और धारण करने का। एवं अर्जुन-सरीखे इन्द्रियसंयमी, महान् त्यागी, विचक्षण ज्ञानी-विशेषकर भगवान् के परम प्रिय सखा, सेवक और शिष्य को इस ‘परम फल’ का प्राप्त होना सर्वथा उचित ही है।
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