श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रश्न- इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भाँति विचार कर जैसे चाहता है वैसे ही कर, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से उपदेश आरम्भ करके भगवान् ने अर्जुन को सांख्ययोग और कर्मयोग, इन दोनों ही साधनों के अनुसार स्वधर्मरूप युद्ध करना जगह-जगह[1] कर्तव्य बतलाया तथा अपनी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इसके बाद अठारहवें अध्याय में उसकी जिज्ञासा के अनुसार संन्यास और त्याग (योग)- का तत्त्व भली-भाँति समझाने के अनन्तर पुनः छप्पनवें और सत्तावनवें श्लोकों में भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन करके अर्जुन को अपनी शरण में आने के लिये कहा। इतने पर भी अर्जुन की ओर से कोई स्वीकृति की बात नहीं कहे जाने पर भगवान ने पुनः उस आज्ञा के पालन करने का महान फल दिखलाया और उसे न मानने से बहुत बड़ी हानि भी बतलायी। इस पर भी कोई उत्तर न मिलने से पुनः अर्जुन को सावधान करने के लिये परमेश्वर को सबका प्रेरक और सबके हृदय में स्थित बतलाकर उसकी शरण ग्रहण करने के लिये कहा। इतने पर भी जब अर्जुन ने कुछ नहीं कहा तब इस श्लोक के पूर्वाद्ध में उपदेश का उपसंहार करके एवं कहे हुए उपदेश का महत्त्व दिखलाकर इस वाक्य से पुनः उस पर विचार करने के लिये अर्जुन को सावधान करते हुए अन्त में यह कहा कि ‘यथेच्छसि तथा कुरु’ अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से विचार करने के उपरान्त तुम जैसा ठीक समझो वैसा ही करो। अभिप्राय यह है कि मैंने जो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग आदि बहुत प्रकार के साधन बतलाये हैं, उनमें से तुम्हें जो साधन अच्छा मालूम पड़े उसी का पालन करो अथवा और जो कुछ तुम ठीक समझो वही करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2। 18, 37; 3।30; 8।7; 11।34
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