श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्यद्गुह्यतरं मया ।
उत्तर- ‘इति’ पद यहाँ उपदेश की समाप्ति का बोधक है तथा दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से लेकर यहाँ तक भगवान ने जो कुछ कहा है, उस सबका लक्ष्य कराने वाला है। प्रश्न- ‘ज्ञानम्’ पद यहाँ किस ज्ञान का वाचक है और उसके साथ ‘गुह्यात् गुह्यतरम्’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया गया है? उत्तर- भगवान ने दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से आरम्भ करके यहाँ तक अर्जुन को अपने गुण, प्रवाह, तत्त्व और स्वरूप् का रहस्य भली-भाँति समझाने के लिये जितनी बातें कहीं हैं- उस समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद है; वह सारा-का-सारा उपदेश भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाला है, इसलिये उसका नाम ज्ञान रखा गया है। संसार में और शास्त्रों में जितने भी गुप्त रखने योग्य रहस्य के विषय माने गये हैं- उन सबमें भगवान के गुण, प्रभाव और स्वरूप का यथार्थ ज्ञान करा देने वाला उपदेश सबसे बढ़कर गुप्त रखने योग्य माना गया है; इसलिये इस उपदेश का महत्त्व समझाने के लिये और यह बात समझाने के लिये कि अनधिकारी के सामने इन बातों को प्रकट नहीं करना चाहिये, यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद के साथ ‘गुह्यात् गुह्यातरम’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- ‘मया’,‘ते’ और ‘आख्यातम्’ इन पदों का क्या भाव है? उत्तर- ‘मया’ पद से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मुझ परमेश्वर के गुण, प्रभाव और स्वरूप का तत्त्व जितना और जैसा मैं कह सकता हूँ वैसा दूसरा कोई नहीं कह सकता; इसलिये यह मेरे द्वारा कहा हुआ ज्ञान बहुत ही महत्त्व की वस्तु है। तथा ‘ते’ पद से यह भाव दिखलाया है कि तुम्हें इसका अधिकारी समझकर तुम्हारे हित के लिये मैंने यह उपदेश सुनाया है और ‘आख्यातम्’ पद से यह भाव दिखलाया है कि मुझे जो कुछ कहना था वह सब में कह चुका, अब और कुछ कहना बाकी नहीं रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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