श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते ।
उत्तर- यज्ञ, तप और दान से यहाँ सात्त्विक यज्ञ, तप और दान का निर्देश किया गया है तथा उसमें जो श्रद्धा और प्रेमपूर्वक आस्तिक बुद्धि है, जिसे निष्ठा भी कहते हैं, उसका वाचक यहाँ ‘स्थिति’ शब्द है; ऐसी स्थिति परमेश्वर की प्राप्ति में हेतु है, इसलिये उसे ‘सत्’ कहते हैं। प्रश्न- ‘तदर्थीयम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किस कर्म का वाचक है और उसे ‘सत्’ कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जो कोई भी कर्म केवल भगवान् के आज्ञानुसार उन्हीं के लिये किया जाता है, जिसमें कर्ता का जरा भी स्वार्थ नहीं रहता- उसका वाचक यहाँ ‘तदर्थीयम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है। ऐसा कर्म कर्ता के अन्तःकरण को शुद्ध बनाकर उसे परमेश्वर की प्राप्ति करा देता है, इसलिये उसे ‘सत्’ कहते हैं। प्रश्न- ‘एव’ का प्रयोग करके क्या भाव दिखलाया गया? उत्तर- ‘एव’ का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि ऐसा कर्म ‘सत्’ है; उसमें तनिक भी संशय नहीं है। साथ ही यह भाव भी दिखलाया है, कि ऐसा कर्म ही वास्तव में ‘सत्’ है, अन्य सब कर्मों के फल अनित्य होने के कारण उनको ‘सत्’ नहीं कहा जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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