भागवत सुधा -करपात्री महाराजजैसे सूर्यतत्त्व की अभिव्यक्ति काष्ट-कुड्यादि अस्वच्छ पदार्थों पर वैसी नहीं होती, जैसी निर्मल जल-काँच आदि पर होती है, वैसे ही राजस-तामस स्थलों में ब्रह्मतत्त्व की अभिव्यक्ति वैसी नहीं हो सकती, जैसी निर्मल विशुद्ध स्थलों में। यह निर्मलता जैसे पार्थिव प्रपञ्च में स्पष्ट अनुभूयमान है, वैसे ही त्रिगुणात्मक प्रपञ्च में गुणविमर्द-वैचित्रय से क्वचित् प्रत्यक्षानुमान द्वारा, क्वचित आगम तथा श्रुतार्थापत्ति द्वारा तारतम्योपेत होकर ज्ञात होती है। इसीलिये किसी स्थल में जाने वे वहाँ अकस्मात् चित्तप्रसाद और किसी स्थल में चित्तक्षोभ आदि चिह्नों से भी स्थलवैचित्र्य की अनुभूति होती है। ब्रज, वन, निकुन्जों में क्रमशः एक की अपेक्षा दूसरे में वैचित्र्य है। अतएव वहाँ पूर्णतर-पूर्णतम रूप से एक ही श्रीकृष्ण चन्द्र परमानन्दकन्द कार प्राकट्य होता है। जिसके कृपा कटाक्ष की प्रतीक्षा ब्रह्मेेन्द्रादि देवाधिदेव भी करते हैं, वह वैकुण्ठाधिष्ठात्री सर्वसेव्या महालक्ष्मी ही जहाँ सेविका बनकर रहने के लिए लालायित हैं, उस सर्वोंच्च विराजमान व्रजभूमि का कौन वर्णन कर सकता है? ‘श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि’। विशुद्ध माधुर्यभाव का प्राकट्य श्रीवृन्दावन धाम में ही माना जाता है। यह बात दूसरी है कि ऐश्वर्य शक्ति मूर्तिमती होकर प्रभु की सेवा करने के सुअवसर की यहाँ प्रतीक्षा करती रहती है। प्रभु भी मृद्भक्षण आदि लीलाओं में मुखान्तर्गत ब्रह्माण्ड-दर्शन आदि के अवसर पर उसे स्वीकार करते हैं। यहाँ नित्य-निकुन्ज श्री वृन्दावन से भी अन्तरंग समझा जाता है। नित्य निकुन्ज में वृषभानुनन्दिनीस्वरूप महाभाव परिवेष्टित श्रृंगार स्वरूप श्रीकृष्ण चन्द्रपरमानन्दकन्द नित्य ही रसाक्रान्त रहते हैं। |
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