भागवत सुधा -करपात्री महाराज‘वर’ सम्भोग श्रृंगार अर्थात मिलन के रस का प्रतिनिधित्व करता है। स्पष्ट है कि जो उस समय वहाँ नहीं है- शीतल मन्द-सुगन्ध वायु, चन्द्रोदय आदि उद्दीपन तथा नायक-नायिका रूप आलम्बन अपने अभिनय के द्वारा उपस्थित कर देता है। सामाजिक का उस दृश्य से तादात्म्य हो जाता है अर्थात स्थायिभावावच्छिन्न चैतन्य, आलम्बनविभावावच्छिन्न चैतन्य से अभिन्न हो जाता है। रसानुभूति होने लगती है। ‘वर’, सम्भोग श्रृंगार अर्थात मिलन के प्रतिनिधि के रूप में आता है और वह मिलन का रस अनुभव कराता है। श्रीकृष्ण आज नट एवं वर दोनों को ही प्रकट करके आ रहे हैं। क्या आश्चर्य है? एक में ही मिलन एवं विरह दोनों का आनन्द!! हाँ, तो यही वृन्दावन का मधुर रस है। पिपासा विरहवत् होती है। तृप्ति मिलनवत होती है। प्रेम में इन दोनों का युगपत निवास है। तृप्ति, पिपासा को बढ़ाती है। पिपासा तृप्ति के आनन्द को बढ़ाती है यही श्री राधाकृष्ण का स्वरूप है। अनादिकाल से अनवरत यह लीला हो रही है, परन्तु एक ने दूसरे को पहिचाना नहीं। जहाँ अनुभव साक्षात अपरोक्ष है- वहाँ पूर्वानुभूत पहिचान की स्फूर्ति ही क्यों हो? अनुभव जब परोक्ष होता है तब बाद में उसकी स्मृति होती है। यहाँ साक्षात अपरोक्ष रस में स्मृति क्या? यह है ‘नटवर वपु’। जिन सात समुद्रों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है वे तो भौतिक हैं। भगवान के नामोच्चारण से वे सूख जाते हैं। वानर भट उन्हें लांघ जाते हैं। परन्तु, स्वयं भगवान दिव्यातिदिव्य प्रेमामृतमहासमुद्र हैं। गोपियाँ उस दिव्य सिंधु की तरंग हैं। जैसे तरंग में जल की व्याप्ति होती है, वैसे ही गोपियों के रोम-रोम में परमप्रेमपियूषाम्बुनिधि भगवान व्याप्त हैं। भगवान के रोग-रोम में गोपियाँ हैं। परन्तु, तरंग एवं रोम-रोम बहिरंग हैं उस अमृत-समुद्र में जो शीतलता है म्रदिमा है, मधुरिमा है- उस अमृत समुद्र में जो मिठास है, वह वृषभानुनन्दिनी है। यह ह्लादित करता है। आनन्द की ह्लादिनि श्याम’’ परमानन्द कन्द रस धन को भी मधुरातिमधुर रस देने वाले- रस-रीति की परिपाटी का पालन जहाँ श्री स्वामी जी अत्यन्त दक्षता और प्रामाणिकता से करते थे, वहाँ वे ‘रसो बै सः', ‘एकञ्ज्योतिरभूद्वेधा राधा-माधव-रूपकम्’ इन वेद-वेदान्तों की उक्तियों को भी ललित वाक्य-कदम्बों-वचनामृतों के द्वारा पूर्ण चरितार्थ करते थे। ‘क्लीं’ बीज और ‘कृष्ण’ नाम की रसात्मकता और दार्शनिकता का युगपत निर्वाह वे जिस अनुपम-रीति से करते थे, उसका समास्वादन रसिकवृन्द उन्हीं के शब्दों में करें- श्री राधा माधुर्याधिष्ठात्री शक्ति हैं। |
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