भागवत सुधा -करपात्री महाराजसंकोच का कारण न होने से बृद्धअर्थक ‘बृहि’ धातु से निष्पन्न ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ निरतिशय बृहत्तम तत्त्व होता है। जो देश-काल-वस्तुपरिच्छेद वाला हो तो परिच्छिन्न होने के कारण अल्प ही है, निरतिशय बृहत् नहीं। यदि जड़ होता तो भी दृश्य होने के कारण अल्प और मर्त्य होगा। अतः अनन्त स्वप्रकाश सदानन्द तत्त्व ही ‘ब्रह्म’ पद का अर्थ होता है। वही भूमा अमृत है। उससे भिन्न सभी को अल्प और मर्त्य समझना चाहिए। फिर ‘अनन्त’ पद के साथ पठित ‘ब्रह्म’ शब्द का तो सुतरां यही अर्थ है। उसमें अतिशयता की कल्पना निर्मूल है।
किसी राजा ने ऐसी कहानी सुनाना चाहा कि जिसका अन्त ही न हो। एक चतुर ने सुनाना आरम्भ किया- राजन! एक वृक्ष था। उसकी अनन्त शाखाएँ थीं। उन शाखाओं में अनन्त-अनन्त उपशाखाएँ थीं। उपशाखाओं में भी अनन्त पल्लव थे। उन पर अनन्त पक्षी बैठे थे। कुछ काल में एक पक्षी उड़ा ‘फुर्र’, दूसरा पक्षी उड़ा ‘फुर्र’, तीसरा पक्षी उड़ा ‘फुर्र’,। राजा ने कहा- आगे कहिए? चतुर ने कहा- पहले पक्षियों का उड़ना पूरा हो तब आगे बढूँ। अनन्त पक्षी हैं। एक-एक करके उड़ने तो दो। इसी तरह कल्पनाओं का अन्त ही नहीं है। अतः थोडे़ में यही कहा जा सकता है कि अतिशयता की कल्पना करते-करते वाचस्पति तथा प्रजापति की भी मति जब विरत हो जाय, जिससे आगे कभी भी कोई कल्पना कर ही न सके, तब उसी अनन्त, अखण्ड, स्वप्रकाश,परमानन्दघन भगवान को वेदान्ती ब्रह्म कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्मसूत्र 1.1.1.
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