श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका-जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- कोई भी कर्म बिना स्फुरणा के नहीं हो सकता; पहले स्फुरणा होकर ही मन, वाणी और शरीर द्वारा कर्म किये जाते हैं। अन्य कर्मों की तो बात ही क्या है, बिना स्फुरणा के तो खाना-पीना और चलना-फिरना आदि शरीर निर्वाह के कर्म भी नहीं हो सकते; फिर इस श्लोक में ‘समारम्भाः’ पद से बतलाये हुए शास्त्र विहित कर्म कैसे हो सकते हैं? इस कारण यहाँ ‘संकल्प’ का अर्थ स्फुरणामात्र मानना उचित प्रतीत नहीं होता। प्रश्न- ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’ पद में ‘ज्ञानाग्नि’ शब्द किसका वाचक है? और उसके द्वारा कर्मों का दग्ध हो जाना क्या है? उत्तर- किसी भी साधन के अनुष्ठान से उत्पन्न परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का वाचक यहाँ ‘ज्ञानाग्नि’ शब्द हैै। जैसे अग्नि ईंधन को भस्म कर डालता है, वैसे ही ज्ञान भी समस्त कर्मों को भस्म कर देता है [1]- इस प्रकार अग्नि की उपमा देने के लिये उसे यहाँ ‘ज्ञानाग्नि’ नाम दिया गया है। जैसे अग्नि द्वारा भुने हुए बीज केवल नाम मात्र के ही बीज रह जाते हैं, उनमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा जो समस्त कर्मों में फल उत्पन्न करने की शक्ति का सर्वथा नष्ट हो जाना है- यही उन कर्मों का ज्ञान रूप अग्नि से भस्म हो जाना हैं। प्रश्न- यहाँ ‘बुधाः’ पद किन का वाचक है और उपर्युक्त प्रकार से जो ‘ज्ञानाग्दिग्धकर्मा’ हो गया है, उसे वे ‘पण्डित’ कहते हैं- इस कथन का क्या अभिप्राय है। उत्तर- ‘बुधाः’ पद यहाँ तत्त्वज्ञानी महात्माओं का वाचक है और उपर्युक्त पुरुष को वे पण्डित कहते हैं- इस कथन से उपर्युक्त सिद्ध योगी की विशेष प्रशंसा की गयी है। अभिप्राय यह है कि कर्मों में ममता, आसक्ति, अहंकार और उनसे अपना किसी प्रकार का कोई प्रयोजन न रहने पर भी उनका स्वरूपतः त्याग न करके लोकसंग्रह के लिये समस्त शास्त्र विहित कर्मों को विधिपूर्वक भली-भाँति करते रहना बहुत ही धीरता, वीरता, गम्भीरता और बुद्धिमत्ता का काम है; इसलिये ज्ञानी लोग भी उसे पण्डित (तत्वज्ञानी महात्मा) कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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