श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता: ।
उत्तर- अपने-अपने वर्णाश्रम और परिस्थिति की अपेक्षा से जिसके लिये जो यज्ञ, दान, तप तथा जीविका और शरीर निर्वाह के योग्य शास्त्रसम्मत कर्तव्य-कर्म हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘समारम्भाः’ पद है। क्रियामात्र को आरम्भ कहते हैं; ज्ञानी के कर्म शास्त्रनिषिद्ध या व्यर्थ नहीं होते- यह भाव दिखलाने के लिये ‘आरम्भ’ के साथ ‘सम्’ उपसर्ग का प्रयोग किया गया है। तथा ‘सर्वे’ विशेषण से यह भाव दिखलाया गया है कि साधनकाल में मनुष्य के समस्त कर्म बिना कामना और संकल्प के नहीं होते’ किसी-किसी कर्म में कामना और संकल्प का संयोग भी हो जाता है; पर साधन करते-करते जो सिद्ध हो गया है, उस महापुरुष के तो सभी कर्म कामना और संकल्प से रहित ही होते हैं; उसका कोई भी कर्म कामना और संकल्प से युक्त या शास्त्रविरुद्ध नहीं होता। प्रश्न- ‘कामसंल्पवर्जिताः’ इस पद में आये हुए ‘काम’ और ‘संकल्प’ शब्दों का क्या अर्थ है तथा इनसे रहित कर्म कौन-से हैं? उत्तर- स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग-सुख आदि इस लोक और परलोक के जितने भी विषय (पदार्थ) हैं, उनमें से किसी की किंचिन्मात्र भी इच्छा करने का नाम ‘काम’ है तथा किसी विषय को ममता, अहंकार, राग-द्वेष एवं रमणीय बुद्धि से स्मरण करने का नाम ‘संकल्प’ है। कामना संकल्प का कार्य है और संकल्प उसका कारण है। विषयों का स्मरण करने से ही उनमें आसक्ति होकर कामना की उत्पत्ति होती है।[1] जिन कर्मों में किस वस्तु के संयोग-वियोग की किंचिन्मात्र थी कामना नहीं हैं, जिनमें ममता, अहंकार और आसक्ति का सर्वथा अभाव है और जो केवल लोक-संग्रह के लिये चेष्टामात्र किये जाते हैं- वे सब कर्म काम और संकल्प से रहित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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