श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी भाव की साधना
‘अहा! कैसा सौभाग्य हो मेरा, यदि मैं वृन्दावन में कोई बेल, अनाज के पौधे या झाड़ियों में से कोई हो जाऊँ, जिन पर इन व्रजबालाओं के चरण की धूलि पड़ती रहती है। धन्य हैं ये व्रज-गोपियाँ, जिन्होंने बड़ी कठिनता से छोड़े जाने वाले बन्धुओं को और सनातन (मर्यादा)- धर्म को त्यागर उस मुकुन्द पदवी का अनुसरण किया है, जो श्रुतियों द्वारा खोजी जाती है (परंतु प्राप्त नहीं होती)। अहो! साक्षात लक्ष्मी जी जिनकी पूजा करती हैं तथा ब्रह्मा आदि आप्तकाम योगेश्वरगण भी जिनका अपने चित्त में ही चिन्तन करते हैं (परंतु प्रत्यक्षरूप में पाते नहीं), भगवान श्रीकृष्ण के उन चरण कमलों को रास के पूर्व होने वाली प्रेम चर्चा के समय जिन्होंने अपने वक्षःस्थल पर रखकर अपने विरह-ताप को बुझाया, जिनका हरिकथामय गान तीनों लोकों को पवित्र करने वाला है, नन्दव्रज की उन गोपरमणियों की चरण-धूलि को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।’ गोपियों का हृदय प्रतिक्षण यही पुकारा करता है- ‘कैसे हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण की इच्छा पूर्ण हो! ये धन-धाम, ये मन-प्राण, ये देह-गेह कैसे प्यारे कन्हैया को सुख पहुँचाने वाले हों। अरे, ये तो उन्हीं के हैं- उन्हीं की सामग्री हैं; फिर यह चाहा भी कैसे जाय कि इनको लेकर, इन्हें अपनी सेवा में लगाकर तुम सुखी हो जाओ। दी तो जाती है वह वस्तु, जो अपनी होती है; यहाँ तो सब कुछ उन्हीं का है, अहा! मुझ पर भी तो उन्हीं का एकाधिकार है। फिर मैं कैसे कहूँ- तुम मुझे ले लो, मुझे अपनी सेवा में लगा लो। क्या मुझ पर मेरा अधिकार है? बहुत ठीक, अब कुछ नहीं कहना है। तुम यन्त्री हूँ। मैं यन्त्र हूँ तुम नचाने वाले हो, मैं कठपुतली हूँ। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीमभ्दा. 10/47/61-63
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