श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी भाव की साधनासमस्त गोपीजन उन हृादिनी शक्ति की ही अनन्त विभिन्न प्रतिमूर्तियाँ हैं। उनका जीवन स्वाभाविक ही भगवदर्पित है। उनकी प्रत्येक क्रिया स्वाभाविक ही भगवत्सेवारूप होती है। उनकी कोई भी चेष्टा ऐसी नहीं होती, जिसमें भगवत्प्रीति सम्पादन के सिवा, श्रीकृष्ण-राधिका के मिलन सुख की साधना के सिवा अन्य कोई उद्देश्य हो। उनके बुद्धि, मन, इन्द्रिय, शरीर, आत्मा के सहित सदा श्रीकृष्ण के ही अर्पण हैं। उनके द्वारा निरन्तर श्रीकृष्ण की ही सेवा बनती है। कभी भूलकर भी उनका चित्त दूसरी ओर नहीं जाता, दूसरे विषय को ग्रहण नहीं करता; वे श्रीकृष्ण में ही सुखी रहती हैं, उनको सुखी देखकर ही परमसुख का अनुभव करती हैं। उनका निज सुख श्रीकृष्ण सुख में ही समाया रहता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है-
उनके चित्त भगवान के चित्त हो गये थे अर्थात् उनके चितो में भगवभ्दाव के सिवा अन्य किसी संकल्प का उदय ही नहीं होता था। वे उन्हीं की चर्चा करती थीं, उन्हीं के लिये उनकी सारी चेष्टाएँ होती थीं- इस प्रकार वे भगवन्मयी हो गयी थीं और भगवान का गुण-गान करते हुए उन्हें अपने शरीरों की तथा घरों की भी सुधि नहीं रही थी। वे जब घरों का काम करतीं, तब भी वे अपने मन में, अपनी वाणी में और अपनी आँखों में निरन्तर श्रीभगवान का ही स्पर्श पाती थीं, उन्हीं के दर्शन करती थीं। इसलिये भगवान के अत्यन्त प्रिय भक्त उद्धव जी ने गोपी-प्रेम की महान महिमा से प्रभावित होकर व्रज में लता-गुल्म बनने की अभिलाषा करते हुए गोपियों की चरणरज की वन्दना की है-
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- ↑ 10/30/43
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