श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी भाव की साधनातुम्हारी जो इच्छा हो, वही करो- बस, वही करो।’ कैसी ऊँची स्थिति है! इन्हें किसी भी वस्तु, किसी भी स्थिति की तनिक भी परवा नहीं है। शास्त्रों में आठ फाँसियाँ बतलायी गयी हैं, जिनमें बँधा हुआ मनुष्य निरन्तर कष्ट भोगता रहता है और प्रेममय, आनन्दमय भगवान की ओर अग्रसर नहीं हो सकता-
‘घृणा, शंका, भय, लाज, जुगुप्सा, कुल, शील और मान- ये आठ जीव के पाश है।’ अब गोपियों में देखिये- इनमें से कहीं एक भी उनमें ढूँढे नहीं मिलता। वे इन आठ सुदृढ़ फाँसियेां को तोड़कर स्वतन्त्र हो चुकी हैं। इसी से वे सर्वस्व त्यागकर अपने जीवन की गति को सब ओर से फिराकर भगवान श्रीकृष्ण में लगा सकी है। मनुष्य भगवत्कृपा से प्राप्त अनुकूल साधना और तत्परता के फलस्वरूप जब इस अवस्था पर पहुँच जाता है, तब गोपी भाव से सम्पन्न होकर तुरंत ही भगवान को प्राप्त करने के लिये अभिसार करता है। फिर वह कुल-शील, लज्जा-भय, मानामपमान, धर्माधर्म और लोक-परलोक की चिन्ता छोड़कर पागल की तरह ‘हा प्रियतम, हा प्राणप्यारे, हा मेरे मनमोहन! तुम्हारी मधुर छवि को देखे बिना अब एक पल भी मुझसे रहा नहीं जाता, मेरा एक-एक निमेष युग के समान बीत रहा है, पुकारता हुआ दौड़ पड़ता है। अपने जीवन की सारी चेष्टाओं को लेकर श्रीकृष्ण की ओर। जो ऐसा कर पाता है, वह बड़ा ही भाग्यवान है। उसी का जीवन धन्य है। पाँच भाव हैं- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। सारे जीवन इन पाँच भावों के अधीन हैं। जो भाग्यवान् पुरुष इन भावों को इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार से हटाकर भगवान में लगा देता है, वही सच्चा साधक है। ऐसा करना ही वस्तुतः परम पुरुषार्थ है। इन पाँच भावों से सबसे उत्तम ‘मधुर’ भाव है। ‘मधुर’ भाव में शान्त दास्य, सख्य और वात्सल्य- चारों का ही समावेश है। |
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