विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 112
दुर्वासा बोले- जगदीश्वर! आप सब पर विजय पाने वाले, जनार्दन, सबके आत्म स्वरूप, सर्वेश्वर, सबके कारण, पुरातन, गुणरहित, इच्छा से परे, निर्लिप्त, निष्कलंक, निराकार, भक्तानुग्रहमूर्ति, सत्यस्वरूप, सनातन, रूपरहित, नित्य नूतन और ब्रह्मा, शिव, शेष तथा कुबेर द्वारा वन्दित हैं। लक्ष्मी आपके चरण कमलों की सेवा करती रहती हैं। आप ब्रह्मज्योति और अनिर्वचनयी हैं, वेद भी आपके रूप और गुण का थाह नहीं लगा पाते और आप महाकाश के समान सम्माननीय हैं; आपकी जय हो, जय हो। परमात्मन! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो। श्रीहरि की अनुमति से मन ही मन यों कहकर प्रियवर दुर्वासा श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वहीं उनके सामने खड़े हो गये। तब जगन्नाथ श्रीकृष्ण ने उन्हें वह ज्ञान बतलाना आरंभ किया; जो हितकारक, सत्य पुरातन, वेदविहित और सभी सत्पुरुषों द्वारा मान्य था। श्रीभगवान ने कहा- विप्र! तुम तो शिव के अंश हो; अतः डरो मत। क्या ज्ञान द्वारा तुम्हें यह नहीं ज्ञात है कि मैं सबका उत्पत्ति स्थान हूँ और सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं? मुने! मैं ही सबका आत्मा हूँ। मेरे बिना सभी शवतुल्य हो जाते हैं। प्राणियों के शरीर से मेरे निकल जाने पर सभी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। अकेला मैं ही उत्पन्न होकर पृथक-पृथक-रूप से व्यक्त होता हूँ। जो भोजन करता है, उसी की तृप्ति होती है; दूसरे कभी भी तृप्त नहीं होते। जीवादि समस्त प्राणियों की प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। गोलोक स्थित रासमण्डल में परिपूर्णतम मैं ही हूँ। राधा श्रीदामा के शाप से इस समय मेरा दर्शन नहीं कर सकती। सभी राधा के अंश-कलांश रूप से उत्पन्न हुए हैं। रुक्मिणी के भवन में राधा का अंश है और अन्य सभी रानियों के महलों में कलाएँ हैं। मेरा भी शरीरधारियों की प्रतिमाओं में कहीं अंश, कहीं कला की कला और कहीं कला का कलांश वर्तमान है। इतना कहकर जगदीश्वर महल के भीतर चले गये और दुर्वासा जी अपनी प्रिया एकानंशा को त्यागकर श्रीहरि के लिए तप करने चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |