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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 71-72
कंस ने रंगभूमि में दर्शकों के बैठने के लिए मञ्च बनवाये और सभा के द्वार पर हाथी को खड़ा कर दिया। हाथी के साथ ही पहलवान और जुझारू सेना भी स्थापित कर दी। तत्पश्चात धनुर्यज्ञ का मंगल-कृत्य आरंभ किया। सभा बनवायी। पुण्यदायक स्तस्तिवाचन एवं मंगलपाठ कराया तथा योगयुक्त पुरोहित को यत्नपूर्वक आवश्यक कार्य के अनुष्ठान में नियुक्त किया। राजा कंस हाथ में विलक्षण तलवार ले रमणीय मञ्च पर जा बैठा। मल्लयुद्ध के ले उस कला में निपुण यौद्धा को नियुक्त किया। आमंत्रित श्रेष्ठ राजाओं, ब्राह्मणों, मुनीश्वरों, सुहृदयवर्ग के लोगों, धर्मात्मा पुरुषों तथा युद्धकुशल पुरुषों को यथास्थान बैठाया। नारद! इसी समय बलराम के साथ भगवान श्रीकृष्ण रंगभूमि में आये और महादेव जी के धनुष को लीलापूर्वक बीच से ही तोड़ डाला। धनुष टूटने की भयंकर आवाज से सारी मथुरापुरी बाहरी सी हो गयी। कंस को बड़ा दुःख हुआ और देवकीनन्दन श्रीकृष्ण हर्ष से खिल उठे। द्वारवर्ती मल्लसहित हाथी का वध करके वे सभा में उपस्थित हुए। योगीजनों ने उन्हें साक्षात परमात्मादेव परमेश्वर के रूप में देखा। वे अपने हृदयकमल में जिस स्वरूप का ध्यान करते थे, वही उन्हें बाहर दृष्टिगोचर हुआ। राजाओं की दृष्टि में वे सर्वशासक दण्डधारी राजेंद्र थे। माता-पिता ने उनको स्तनपान करने वाले दुधमुँहे बालक के रूप में देखा। कामिनियों की दृष्टि में वे करोड़ो कन्दर्पों की लावण्य लीला धारण करने वाले रसिक शेखर थे। कंस ने कालपुरुष समझा और उसके भाइयों ने शत्रु। मल्लों ने अपनी मृत्यु का स्थान माना और यादवों ने उनको प्राणों के समान प्रिय देखा। श्रीकृष्ण ने सभा में बैठे हुए मुनियों, ब्राह्मणों तथा माता, पिता एवं गुरुजनों को नमस्कार किया। फिर वे हाथ में सुदर्शनचक्र लिए राजमञ्च के निकट गये। मुने! उन्होंने कंस के भक्त के रूप में देखा। भक्तों के तो वे जीवनबन्धु ही हैं। कृपानिधान श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक कंस को मञ्च से खींच लिया और लीला से ही उसको मार डाला। उस समय राजा कंस को संपूर्ण जगत श्रीकृष्णमय दिखाई दे रहा था। मृत्यु के पश्चात उसके निकट हीरे के हारों से विभूषित रत्नमय विमान आ पहुँचा और वह दिव्य रूप धारण करके समृद्धिशाली हो उस विमान से विष्णुधाम में जा पहुँचा। मुने! कंस का उत्कृष्ट तेज श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में प्रविष्ट हो गया। उसका और्ध्वदैहिक संस्कार एवं सत्कार करके श्रीहरि ने ब्राह्मणों को धन का दान किया। इसके बाद राज्य एवं राजा का छत्र बुद्धिमान उग्रसेन को सौंप दिया। चंद्रवंशी उग्रसेन पुनः यादवों के ‘राजेंद्र’ हो गये। कंस की माता, पत्नियाँ, पिता, बन्धु-बान्धव, मातृवर्ग की स्त्रियाँ, बहिन तथा भाइयों की स्त्रियाँ भी विलाप करने लगीं। वे बोलीं- ‘राजेंद्र! उठो, राजसिंहासन पर बैठकर हमें दर्शन दो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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