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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 44
वह एक हाथ में रत्नमय दर्पण लिये हुए थी और दूसरे में क्रीड़ा कमल लेकर घुमा रही थी। उसके अंग चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम से चर्चित थे। ऐसी अलौकिक रूपवाली जगत की आदिकारणभूता जगदम्बा को सब लोगों ने प्रसन्नता के साथ देखा। हर्ष से युक्त भगवान त्रिलोचन ने भी नेत्र के कोने से पार्वती की ओर देखा। देखकर वे आनन्द-विभोर हो उठे। उसकी सम्पूर्ण आकृति सती से सर्वथा मिलती-जुलती थी। उसे देखकर भगवान शंकर ने विरह-ज्वर का परित्याग कर दिया। उन्होंने अपना मन दुर्गा को अर्पित कर दिया और स्वयं सब कुछ भूल गये। उनके सारे अंग पुलकित हो गये तथा नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये। इसी समय हर्ष से भरे हुए हिमवान ने पुरोहित के साथ जाकर वस्त्र, चन्दन और आभूषणों द्वारा उनका वर के रूप में वरण किया। भक्तिभाव से पाद्य आदि उपचार अर्पित किये तथा दिव्य गन्धवाली मनोहर मालाओं से दूलह को अलंकृत किया। तत्पश्चात यथासम्भव शीघ्र वेद मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक उनके हाथ में अपनी कन्या का दान कर दिया। राधिके! तदनन्तर हर्ष से भरे हुए हिमालय ने उदारतापूर्वक दहेज में उन्हें अनेक प्रकार के रत्न, सुन्दर रत्नों के बने हुए मनोहर पात्र, एक लाख गौ, रत्नजटित झूल और अंकुश से युक्त एक सहस्र गजराज, सजे-सजाये तीन लाख घोड़े, श्रेष्ठ रत्नों से अलंकृत लाखों अनुरक्त दासियाँ, पार्वती के लिये छोटे भाई के समान प्रिय एक सौ ब्राह्मण वटु और श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित सौ रमणीय रथ दिये। पूर्वोक्त वस्तुओं के साथ शैलराज द्वारा यत्नपूर्वक दी हुई पार्वती को भगवान शंकर ने प्रसन्न-मन से ‘स्वस्ति’ कहकर ग्रहण किया। हिमालय ने कन्यादान करके भगवान शंकर की परिहार नामक स्तुति की। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ माध्यन्दिन-शाखा में वर्णित स्तोत्र को पढ़ते हुए उनका स्तवन किया। हिमालय बोले– सर्वेश्वर शिव! आप दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने वाले तथा शरणागतों को नरक के समुद्र से उबारने वाले हैं, सबके आत्मस्वरूप हैं और आपका श्रीविग्रह परमानन्दमय है; आप मुझ पर प्रसन्न हों; गुणवानों में श्रेष्ठ महाभाग शंकर! आप गुणों के सागर होते हुए भी गुणातीत हैं; गुणों से युक्त, गुणों के स्वामी और गुणों के आदि कारण हैं; मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। प्रभो! आप योग के आश्रय; योगरूप, योग के ज्ञाता, योग के कारण, योगीश्वर तथा योगियों के आदिकारण और गुरु हैं; आप मेरे ऊपर कृपा करें। भव! आपमें ही सब प्राणियों का लय होता है, इसलिये आप ‘प्रलय’ हैं। प्रलय के एकमात्र आदि तथा उसके कारण हैं। फिर प्रलय के अन्त में सृष्टि के बीजरूप हैं और उस सृष्टि का पूर्णतः परिपालन करने वाले हैं; मुझ पर प्रसन्न होवें। भयंकर संहार-काल में सृष्टि का संहार करने वाले आप ही हैं। आपके वेग को रोकना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। आराधना द्वारा आपको रिझा लेना भी सहज नहीं है तथापि आप भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं; प्रभो! आप मुझ पर कृपा करें। आप कालस्वरूप, काल के स्वामी, कालानुसार फल देने वाले, काल के एकमात्र आदि कारण तथा काल के नाशक एवं पोषक हैं; मुझ पर प्रसन्न हों। आप कल्याण की मूर्ति, कल्याणदाता तथा कल्याण के बीज और आश्रय हैं। आप ही कल्याणमय तथा कल्याणस्वरूप प्राण हैं; सबके परम आश्रय शिव! मुझ पर कृपा करें। इस प्रकार स्तुति कर हिमालय चुप हो गये, उस समय समस्त देवताओं और मुनियों ने गिरिराज के सौभाग्य की सराहना की। राधिके! जो मनुष्य सावधान-चित्त होकर हिमालय द्वारा किये गये स्तोत्र का पाठ करता है, उसके लिये शिव निश्चय ही मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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