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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 22
वेद, ब्रह्मा आदि देवता तथा मुनीन्द्र भी जिनकी स्तुति करने में असमर्थ हैं, उन्हीं गुणातीत परमेश्वर की स्तुति मुझ-जैसा पुरुष क्या करेगा? जो पहले दैत्य था और अब गदहा है। करुणासागर! आप ऐसा कीजिये, जिससे मेरा जन्म न हो। आपके चरणारविन्द के दर्शन पाकर कौन फिर जन्म अथवा घर-गृहस्थी के चक्कर में पड़ेगा? ब्रह्मा जिनकी स्तुति करते हैं, उन्हीं का स्तवन आज एक गदहा कर रहा है। इस बात को लेकर आपको उपहास नहीं करना चाहिये; क्योंकि सच्चिदानन्दस्वरूप एवं विज्ञ परमेश्वर की योग्य और अयोग्य पर भी समानरूप से कृपा होती है। यों कहकर दैत्यराज धेनुक श्रीहरि के सामने खड़ा हो गया। उसके मुख पर प्रसन्नता छा रही थी, वह श्रीसम्पन्न एवं अत्यन्त संतुष्ट जान पड़ता था। दैत्य द्वारा किये गये इस स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह अनायास ही श्रीहरि का लोक, ऐश्वर्य और सामीप्य प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं, वह इहलोक में श्रीहरि की भक्ति, अन्त में उनका परम दुर्लभ दास्यभाव, विद्या, श्री, उत्तम कवित्व, पुत्र-पौत्र तथा यश भी पाता है। भगवान श्रीनारायण कहते हैं– दैत्यराज की यह स्तुति सुनकर करुणानिधान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन विचार किया कि ‘अहो! ऐसे भक्त का संहार मैं कैसे करूँ?’ ऐसा सोचकर भगवान ने स्वयं ही उसकी पूर्वजन्म की स्मृति हर ली; क्योंकि स्तुति करने वाले का वध उचित नहीं है। दुर्वचन बोलने वाले के ही वध का विधान है। तब दानव वैष्णवी माया के प्रभाव से पुनः अपने-आपको भूल गया। उसके कण्ठदेश में दुर्वचन ने स्थान जमा लिया। मुने! वह शीघ्र ही मरना चाहता था, इसलिये दुर्दैव से ग्रस्त हो विवेक खो बैठा। क्रोध से उसके ओठ फड़कने लगे और वह दैत्य श्रीहरि से इस प्रकार बोला। दैत्य ने कहा– दुर्मते! तू निश्चय ही मरना चाहता है। मनुष्य के बच्चे! मैं आज तुम्हें यमलोक भेज दूँगा। इस प्रकार बहुत-से दुर्वचन कहकर उस गदहे ने श्रीकृष्ण पर आक्रमण कर दिया। भयानक युद्ध हुआ। अन्त में श्रीहरि ने प्रसन्नतापूर्वक हँसकर उस दानवराज की प्रशंसा करते हुए कहा– ‘मेरे भक्त बलि के पुत्र! दानवेन्द्र! तुम्हारा उत्तम जीवन धन्य है। वत्स! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम मोक्ष प्राप्त करो। मेरा दर्शन कल्याण का बीज तथा मोक्ष का परम कारण है। तुम सबसे अधिक और सबसे उत्कृष्ट मनोहर स्थान प्राप्त करो।’ यों कहकर श्रीकृष्ण ने अपने उत्तम चक्र का स्मरण किया, जो अपनी दीप्ति से करोड़ों सूर्यों के समान उद्दीप्त होता है। स्मरण करते ही वह आ गया और श्रीकृष्ण ने उस सुदर्शनचक्र को अपने हाथ में लिया। उसमें सोलह अरे थे। उस उत्तम अस्त्र को घुमाकर श्रीकृष्ण ने उसकी ओर फेंका तथा जिसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी नहीं मार सकते थे, उसे लीला से ही काट डाला। उस महात्मा दानव का मस्तक पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके शरीर से सैकड़ों सूर्यों के समान कान्तिमान तेजःपुंज उठा, जो श्रीहरि की ओर देखकर उन्हीं के चरणकमलों में लीन हो गया। अहो! उस दानवराज ने परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। उस समय आकाश में खड़े हुए समस्त देवता और मुनि अत्यन्त हर्ष से उत्फुल्ल हो वहाँ पारिजात के फूलों की वर्षों करने लगे। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बज उठीं। अप्सराएँ नाचने लगीं। गन्धर्व-समूह गीत गाने लगे और मुनि लोग सानन्द स्तुति करने लगे। स्तुति करके हर्ष से विह्वल हुए समस्त देवता और मुनि चले गये। ‘धेनुकासुर मारा गया’– यह देख ग्वाल-बाल वहाँ आ गये। बलवानों में श्रेष्ठ बलराम ने पुरुषोत्तम का स्तवन किया। समस्त ग्वाल-बालों ने भी उनके गुण गाये। वे खुशी के मारे नाचने लगे। श्रीकृष्ण और बलराम को कुछ पके हुए फल देकर शेष सभी फलों को उन बालकों ने प्रसन्न-चित्त होकर खाया। खा-पीकर बलराम और बालकों के साथ श्रीहरि शीघ्र अपने घर को गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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