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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 19
ग्वालबाल बोले– ब्रह्मन! मधुसूदन! आपने सब आपत्तियों में जैसे हमारे कुल की रक्षा की है, उसी प्रकार फिर इस दावानल से हमें बचाइये। जगत्पते! आप ही हमारे इष्टदेवता हैं और आप ही कुलदेवता। संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले भी आप ही हैं। अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य, यम, कुबेर, वायु, ईशानादि देवता, ब्रह्मा, शिव, शेष, धर्म, इन्द्र, मुनीन्द्र, मनु, मानव, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर तथा अन्य जो-जो चराचर प्राणी हैं, वे सब-के-सब आपकी ही विभूतियाँ हैं। उन सबके आविर्भाव और लय आपकी इच्छा से ही होते हैं। गोविन्द! हमें अभय दीजिये। और इस अग्नि का संहार कीजिये। हम आपकी शरण में आये हैं। आप हम शरणागतों को बचाइये। यों कहकर वे सब लोग श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए खड़े हो गये। श्रीकृष्ण की अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही दावानल दूर हो गया। फिर तो वे ग्वालबाल मोदमग्न होकर नाचने लगे। क्यों न हो, श्रीहरि के स्मरणमात्र से सब विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। जो प्रातःकाल उठकर इस परम पुण्यमय स्तोत्र का पाठ करता है, उसे जन्म-जन्म में कभी अग्नि से भय नहीं होता। शत्रुओं से घिर जाने पर, दावानल में आ जाने पर, भारी विपत्ति में पड़ने पर तथा प्राण संकट के समय इस स्तोत्र का पाठ करके मनुष्य सब दुःखों से छुटकारा पा जाता है। इसमें संशय नहीं है। शत्रुओं की सेना क्षीण हो जाती है और वह मनुष्य युद्ध में सर्वत्र विजयी होता है। वह इहलोक में श्रीहरि की भक्ति और अन्त में उनके दास्य-सुख को अवश्य पा लेता है।[1] भगवान श्रीनारायण कहते हैं– नारद! सुनो। दावानल से उनका उद्धार करके श्रीहरि उन सबके हाथ अपने कुबेर भवनोपम गृह में गये। वहाँ नन्द ने आनन्दपूर्वक ब्राह्मणों को प्रचुर धन का दान किया और ज्ञाति वर्ग के लोगों तथा भाई-बन्धुओं को भोजन कराया। नाना प्रकार का मंगलकृत्य तथा श्रीहरिनाम-कीर्तन कराया। ब्राह्मणों द्वारा प्रन्नतापूर्वक वेद पाठ करवाया। इस प्रकार वृन्दावन के घर-घर में वे सब गोप श्रीकृष्ण चरणारविन्दों के चिन्तन में चित्त को एकाग्र करके आनन्दपूर्वक रहने लगे। श्रीहरि का यह सारा मंगलमय चरित्र कहा गया, जो कलिकल्पमषरूपी काष्ठ को दग्ध करने के लिए अग्नि के समान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यथा संरक्षितं ब्रह्मन् सर्वापत्स्वेव नः कुलम्। तथा रक्षां कुरु पुनर्दावाग्नेर्मधुसूदन।।
त्वमिष्टदेवतास्माकं त्वमेव कुलदेवता। वह्निर्वा वरुणो वापि चन्द्रो वा सूर्य एव वा।।
यमः कुबेरः पवन ईशानाद्याश्च देवताः। ब्रह्मेशशेषधर्मेन्द्रा मुनीन्द्रा मनवः स्मृताः।।
मानवाश्च तथा दैत्या यक्षराक्षसकिन्नराः। ये ये चराचराश्चैव सर्वे तव विभूतयः।।
स्रष्टा पाता च संहर्ता जगतां च जगत्पते। आविर्भावस्तिरोभावः सर्वेषां च तवेच्छया।।
अभयं देहि गोविन्द वह्निसंहरणं कुरु। वयं त्वां शरणं यामो रक्ष नः शरणागतान्।।
इत्येवमुक्त्वा ते सर्वे तस्थुर्ध्यात्वा पदाम्बुजम्। दूरीभूतश्च दावाग्निः श्रीकृष्णामृतदृष्टितः॥
दूरीभूते च दावाग्नौ ननृतुस्ते मुदान्विता:। सर्वापद: प्रणश्यन्ति हरिस्मरण मात्रत:॥
इदं स्त्रोतं महापुण्य प्रातरुत्थान य: पठेत। वह्नितो न भवेत्तस्य भयं जन्मनि जन्मनि॥
शत्रुग्रस्ते च दावग्रौ विपतौ प्राणसंकटे। स्तोत्रमेतत् पठित्वा च मुच्यते नात्र संशयः।।
शत्रुसैन्यं क्षयं याति सर्वत्र विजयी भवेत्। इहलोके हरेर्भक्तिमन्ते दास्यं लभेद् ध्रुवम्।।-(19। 173-181)
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