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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 18
विप्रपत्नियाँ बोलीं– भगवन! आप स्वयं ही परब्रह्म, परमधाम, निरीह, अहंकारहित, निर्गुण-निराकार तथा सगुण-साकार हैं। आप ही सबके साक्षी, निर्लेप एवं आकार सहित परमात्मा हैं। आप ही प्रकृति-पुरुष तथा उन दोनों के परम कारण हैं। सृष्टि, पालन और संहार के विषय में नियुक्त जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव– ये तीन देवता कहे गये हैं, वे भी आपके ही सर्वबीजमय अंश हैं। परमेश्वर! जिनके रोमकूप में सम्पूर्ण विश्व निवास करता है, वे महाविराट महाविष्णु हैं और प्रभो! आप उनके जनक हैं। आप ही तेज और तेजस्वी हैं, ज्ञान और ज्ञानी हैं तथा इन सबसे परे हैं। वेद में आपको अनिवर्चनीय कहा गया है; फिर कौन आपकी स्तुति करने में समर्थ है? सृष्टि के सूत्रभूत जो महत्तत्त्व आदि एवं पंचतन्मात्राएँ हैं, वे भी आपसे भिन्न नहीं हैं। आप सम्पूर्ण शक्तियों के बीज तथा सर्वशक्तिस्वरूप हैं। समस्त शक्तियों के ईश्वर हैं, सर्वरूप हैं तथा सब शक्तियों के आश्रय हैं। आप निरीह, स्वयंप्रकाश, सर्वानन्दमय तथा सनातन हैं। अहो! आकारहीन होते हुए भी आप सम्पूर्ण आकारों से युक्त हैं– सब आकार आपके ही हैं। आप सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानते हैं तो भी इन्द्रियवान नहीं हैं। जिनकी स्तुति करने तथा जिनके तत्त्व का निरूपण करने में सरस्वती जड़वत हो जाती हैं; महेश्वर, शेषनाग, धर्म और स्वयं विधाता भी जड़तुल्य हो जाते हैं; पार्वती, लक्ष्मी, राधा एवं वेद जननी सावित्री भी जड़ता को प्राप्त हो जाती हैं; फिर दूसरे कौन विद्वान आपकी स्तुति कर सकते हैं? प्राणेश्वरेश्वर! हम स्त्रियाँ आपकी क्या स्तुति कर सकती हैं? देवि! हम पर प्रसन्न होइये। दीनबन्धो! कृपा कीजिये। यों कह सब ब्राह्मणपत्नियाँ उनके चरणारविन्दों में पड़ गयीं। तब श्रीकृष्ण ने प्रसन्नमुख एवं नेत्रों से उन सबको अभयदान दिया। जो पूजाकाल में विप्रपत्नियों द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह ब्राह्मणपत्नियों को मिली हुई गति को प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है। भगवान श्रीनारायण कहते हैं– नारद! उन ब्राह्मणपत्नियों को अपने चरणारविन्दों में पड़ी देख श्री मधुसूदन ने कहा– ‘देवियो! वर माँगो। तुम्हारा कल्याण होगा।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर विप्रपत्नियों को बड़ी प्रसन्नता हुई, श्रद्धा से उनका मस्तक झुक गया और वे भक्तिभाव से इस प्रकार बोलीं। द्विजपत्नियों ने कहा– श्रीकृष्ण! हम आपसे वर नहीं लेंगी। हमारी अभीलाषा यह है कि आपके चरणकमलों की सेवा प्राप्त हो; अतः आप हमें अपना दास्यभाव तथा परम दुर्लभ सुदृढ़ भक्ति प्रदान करें। केशव! हम प्रतिक्षण आपके मुखारविन्द को देखती रहें, यही कृपा कीजिये। प्रभो! अब हम पुनः घर को नहीं जायेंगी। द्विजपत्नियों की यह बात सुनकर करुणानिधान त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर वे बालकों की मण्डली में बैठ गये। तदनन्तर ब्राह्मणपत्नियों ने उन्हें सुधा के समान मधुर अन्न प्रदान किया। भगवान ने उस अन्न को लेकर गोपबालकों को भोजन कराया और स्वयं भी भोजन किया। इसी समय विप्रपत्नियों ने देखा कि आकाश से एक सोने का बना हुआ श्रेष्ठ विमान उतर रहा है। उसमें रत्नमय दर्पण लगे हैं। उसके सभी उपकरण रत्नों के सारतत्त्व से बने हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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