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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 17
कलावती एक पलका भी विरह होने पर स्वामी के बिना व्याकुल हो उठती थी और वृषभानु भी एक क्षण के लिये भी कलावती के दूर होने पर उसके बिना विकल हो जाते थे। वह राजकन्या पूर्वजन्म की बातों को याद रखने वाली देवी थी। माया से मनुष्यरूप में प्रकट हुई थी। वृषभानु भी श्रीहरि के अंश और जातिस्मर थे तथा कलावती को पाकर बड़े प्रसन्न थे। उन दोनों का प्रेम प्रतिदिन नया-नया होकर बढ़ने लगा। लीलावश पूर्वकाल में सुदामा के शाप और श्रीकृष्ण की आज्ञा से श्रीकृष्णप्राणाधिका सती राधिका उन दोनों की अयोनिजा पुत्री हुईं। उसके दर्शनमात्र से वे दोनों दम्पत्ति भवबन्धन से मुक्त हो गये। नारद! इस प्रकार इतिहास कहा गया। अब जिसका प्रकरण चल रहा है, वह प्रसंग सुनो। उक्त इतिहास पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये प्रज्वलित अग्नि की शिखा के समान है। शिल्पिशिरोमणि विश्वकर्मा वृषभानु के आश्रम पर जाकर वहाँ से अपने सेवकगणों के साथ दूसरे स्थान पर गये। वे तत्त्वज्ञ थे। उन्होंने मन-ही-मन एक कोस लंबे-चौड़े एक मनोहर स्थान का विचार करके वहाँ महात्मा नन्द के ले आश्रम बनाना आरम्भ किया। बुद्धि से अनुमान करके उनके लिये सबसे विलक्षण भवन बनाया। वह श्रेष्ठ भवन चार गहरी खाइयों से घिरा हुआ था, शत्रुओं के लिये उन्हें लाँघना बहुत कठिन था। उन चारों खाइयों में प्रस्तर जुड़े हुए थे। उन खाइयों के दोनों तटों पर फूलों के उद्यान थे, जिनके कारण वे पुष्पों से सजी हुई-सी जान पड़ती थीं और सुन्दर एवं मनोहर चम्पा के वृक्ष तटों पर खिले हुए थे। उन्हें छूकर बहने वाली सुगन्धित वायु उन परिखाओं को सब ओर से सुवासित कर रही थी। तटवर्ती आम, सुपारी, कटहल, नारियल, अनार, श्रीफल (बेल), भृंग (इलायची), नीबू, नारंगी, ऊँचे आम्रातक (आमड़ा), जामुन, केले, केवड़े और कदम्बसमूह आदि फूले-फले वृक्षों से उन खाइयों की सब ओर से शोभा हो रही थी। वे सारी परिखाएँ सदा वृक्षों से ढकी होने के कारण जल-क्रीड़ा के योग्य थीं। अतएव सबको प्रिय थीं। परिखाओं के एकान्त स्थान में जाने के लिये विश्वकर्मा ने उत्तम मार्ग बनाया, जो स्वजनों के लिये सुगम और शत्रुवर्ग के लिये दुर्गम था। थोड़े-थोड़े जल से ढके हुए मणिमय खम्भों द्वारा संकेत से उस मार्ग पर खम्भों की सीमा बनायी गयी थी। वह मार्ग न तो अधिक संकीर्ण था और न अधिक विस्तृत ही था। परिखा के ऊपरी भाग में देवशिल्पी ने मनोहर परकोटा बनाया था, जिसकी ऊँचाई बहुत अधिक थी। वह सौ धनुष के बराबर ऊँचा था। उसमें लगा हुआ एक-एक पत्थर पचीस-पचीस हाथ लंबा था। सिन्दूरी रंग की मणियों से निर्मित वह प्राकार बड़ा ही सुन्दर दिखायी देता था। उसमें बाहर से दो और भीतर से सात दरवाजे थे। दरवाजे मणिसारनिर्मित किवाड़ों से बंद रहते थे। वह नन्दभवन इन्द्रनीलमणि के चित्रित कलशों द्वारा विशेष शोभा पा रहा था। मणिसाररचित कपाट भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। स्वर्णसारनिर्मित कलशों से उसका शिखरभाग बहुत ही उद्दीप्त जान पड़ता था। नन्दभवन का निर्माण करके विश्वकर्मा नगर में घूमने लगे। उन्होंने नाना प्रकार के मनोहर राजमार्ग बनाये। रक्तभानुमणि की बनी हुई वेदियों तथा सुन्दर पत्तनों से वे मार्ग सुशोभित होते थे। उन्हें आर-पार दोनों ओर से बाँधकर पक्का बनाया गया था, जिससे वे बड़े मनोहर लगते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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