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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 13
श्रीनारायण कहते हैं– नारद! श्रीहरि को गोद में लेकर गर्ग जी एकान्त स्थान में गये और बड़ी भक्ति एवं प्रसन्नता से उन परमेश्वर को प्रणाम करके उनका स्तवन करने लगे। उस समय उनके नेत्रों में आँसू बह रहे थे। शरीर में रोमांच हो आया था। मस्तक भक्तिभाव से झुक गया था और श्रीकृष्ण चरणारविन्दों में दोनों हाथ जोड़कर वे इस प्रकार बोल रहे थे। गर्ग जी ने कहा– हे श्रीकृष्ण! हे जगन्नाथ! हे भक्तभयभंजन! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। परमेश्वर! मुझे अपने चरणकमलों की दास्य-भक्ति दीजिये। भक्तों को अभय देने वाले गोविन्द! आपके पिता जी ने मुझे बहुत धन दिया है; किंतु उस धन से मेरा क्या प्रयोजन है? आप मुझे अपनी अविचल भक्ति प्रदान कीजिये। प्रभो! अणिमादि सिद्धियों में, योगसाधकों में, अनेक प्रकार की मुक्तियों में, ज्ञानतत्त्व में अथवा अमरत्व में मेरी तनिक भी रुचि नहीं है। इन्द्रपद, मनुपद तथा चिरकाल तक स्वर्गलोक रूपी फल के लिये भी मेरे मन में कोई इच्छा नहीं है। मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर कुछ नहीं चाहता। सालोक्य, सार्ष्टि, सारूप्य, सामीप्य और एकत्व– ये पाँच प्रकार की मुक्तियाँ सभी को अभीष्ट हैं। परंतु परमात्मन! मैं आपके चरणों की सेवा छोड़कर इनमें से किसी को भी ग्रहण करना नहीं चाहता। मैं गोलोक में अथवा पाताल में निवास करूँ, ऐसा भी मेरा मनोरथ नहीं है; परंतु मुझे आपके चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन होता रहे, यही मेरी अभिलाषा है। कितने ही जन्मों के पुण्य के फल का उदय हुआ, जिससे भगवान शंकर के मुख से मुझे आपके मन्त्र का उपदेश प्राप्त हुआ। उस मन्त्र को पाकर मैं सर्वज्ञ और समदर्शी हो गया हूँ। सर्वत्र मेरी अबाध गति है। कृपासिन्धो! दीनबन्धो! मुझ पर कृपा कीजिये। मुझे अभय देकर अपने चरणकमलों में रख लीजिये। फिर मृत्यु मेरा क्या करेगी? आपके चरणारविन्दों की सेवा से ही भगवान शंकर सबके ईश्वर, मृत्युंजय, जगत का अन्त करने वाले तथा योगियों के गुरु हुए हैं। ब्राह्मण! जिनके एक दिन में चौदह इन्द्रों का पतन होता है, वे जगत-विधाता ब्रह्मा आपके चरणकमलों की सेवा से ही उस पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं। आपके चरणों की सेवा करके ही धर्मदेव समस्त कर्मों के साक्षी हुए हैं; सुदुर्जय काल को जीतकर सबके पालक और फलदाता हुए हैं। आपके चरणारविन्दों की सेवा के प्रभाव से ही सहस्र मुखों वाले शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को सरसों के एक दाने की भाँति सिर पर धारण करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे भगवान शिव कण्ठ में विषय धारण करते हैं। जो सम्पूर्ण सम्पदाओं की सृष्टि करने वाली तथा देवियों में परात्परा हैं, वे लक्ष्मी देवी अपने केश-कलापों से आपके चरणों का मार्जन करती हैं। जो सबकी बीजरूपा हैं, वे शक्तिरूपिणी प्रकृति आपके चरणकमलों का चिन्तन करते-करते उन्हीं में तत्पर हो जाती हैं। सबकी बुद्धिरूपिणी एवं सर्वरूपा पार्वती ने आपके चरणों की सेवा से ही महेश्वर शिव को प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त किया है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी को ज्ञानमाता सरस्वती हैं, वे आपके चरणारविन्दों की आराधना करके ही सबकी पूजनीया हुई हैं। जो ब्रह्मा जी तथा ब्राह्मणों की गति हैं, वे वेद जननी सावित्री आपकी चरण सेवा से ही तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। पृथ्वी आपके चरणकमलों की सेवा के प्रभाव से ही जगत को धारण करने में समर्थ, रत्नगर्भा तथा सम्पूर्ण शस्यों को उत्पन्न करने वाली हुई है। आपकी अंशभूता तथा आपके ही तुल्य तेजस्विनी राधा आपके वक्षःस्थल में स्थान पाकर भी आपके चरणों की सेवा करती हैं; फिर दूसरे की क्या बात है? ईश! जैसे शिव आदि देवता और लक्ष्मी आदि देवियाँ आप से सनाथ हैं, उसी तरह मुझे भी सनाथ कीजिये; क्योंकि ईश्वर की सब पर समान कृपा होती है। नाथ! मैं घर को नहीं जाऊँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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