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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 6
धर्म उवाच- धर्म बोले– मेरे ईश्वर! आपके आत्मीयजनों (भक्तों)– के साथ मेरा सदा समागम होता रहे, जो विषयरूपी बन्धन को काटने के लिये तीखी तलवार का काम देता है तथा आपके चरणारविन्दों में स्थान दिलाने का एकमात्र हेतु है। आप जन्म-जन्म में मुझे अपने चरणारविन्दों की भक्ति प्रदान कीजिये। भगवान नारायण कहते हैं– इस प्रकार स्तुति करके पूर्णमनोरथ हुए वे तीनो देवता कामनाओं की पूर्ति करने वाले श्रीराधावल्लभ के सामने खड़े हो गये। देवताओं की यह स्तुति सुनकर कृपानिधान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द मन्द मुस्कान खिल उठी। वे उनसे हितकर एंव सत्य वचन बोले। श्रीकृष्ण ने कहा– तुम सब लोग इस समय मेरे धाम में पधारे हो। यहाँ तुम्हारा स्वागत है, स्वागत है। शिव के आश्रय में रहने वाले लोगों का तो कुशल पूछना उचित नहीं है। यहाँ आकर तुम निश्चिन्त हो जाओ। मेरे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है? मैं समस्त जीवों के भीतर विराजमान हूँ; परंतु स्तुति से ही प्रत्यक्ष होता हूँ। तुम्हारा जो अभिप्राय है, वह सब मैं निश्चितरूप से जानता हूँ। देवताओ! शुभ-अशुभ जो भी कर्म है, वह समय पर ही होगा। बड़ा और छोटा– सब कार्य काल से ही सम्पन्न होता है। वृक्ष अपने-अपने समय पर ही सदा फूलते और फलते हैं। समय पर ही उनके फल पकते हैं और समय पर ही वे कच्चे फलों से युक्त होते हैं। सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, शोक-चिन्ता तथा शुभ-अशुभ–सब अपने-अपने कर्मों के फल हैं और सभी समय पर ही उपस्थित होते हैं। तीनों लोकों में न तो कोई किसी का प्रिय है और न अप्रिय ही है। समय आने पर कार्यवश सभी लोग अप्रिय अथवा प्रिय होते हैं। तुम लोगों ने देखा है, पृथ्वी पर बहुत-से राजा और मनु हुए और वे सभी अपने-अपने कर्मों के फल के परिपाक से काल के अधीन हो गये। तुम लोगों का यहाँ गोलोक में जो एक क्षण व्यतीत हुआ है, उतने में ही पृथ्वी पर सात मन्वन्तर बीत गये। सात इन्द्र समाप्त हो गये। इस समय आठवें इन्द्र चल रहे हैं। इस प्रकार मेरा कालचक्र दिन-रात भ्रमण करता रहता है। इन्द्र, मनु तथा राजा सभी लोग काल के वशीभूत हो गये। उनकी कीर्ति, पृथ्वी, पुण्य और पाप की कथामात्र शेष रह गयी है। इस समय भी भूमि पर बहुत-से राजा दुष्ट और भगवन्निन्दक हैं। उनके बल और पराक्रम महान हैं। परंतु समयानुसार वे सब-के-सब कालान्तक यम के ग्रास हो जाएँगे। यह काल इस समय भी मेरी आज्ञा से उपस्थित है। वायु मेरी आज्ञा मानकर ही निरन्तर बहती रहती है। मेरी आज्ञा से ही आग जलती और सूर्य तपते हैं। देवताओ! मेरी आज्ञा से ही सब शरीर में रोग निवास करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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