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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 4
वह उन्हीं दोनों का क्रीड़ास्थल है। उसमें कल्पवृक्षों के समूह शोभा पाते हैं। विरजा-तीर के नीर से भीगे हुए मन्द समीर उस वन के वृक्षों को शनैः-शनैः आन्दोलित करते रहते हैं। कस्तूरी युक्त पल्लवों का स्पर्श करके चलने वाली मन्द वायु का सम्पर्क पाकर वह सारा वन सुगन्धित बना रहता है। वहाँ के वृक्षों में नये-नये पल्लव निकले रहते हैं। वहाँ सर्वत्र कोकिलों की काकली सुनायी देती है। वह वनप्रान्त कहीं तो केलिकदम्बों के समूह से कमनीय और कहीं मन्दार, चन्दन, चम्पा तथा अन्यान्य सुगन्धित पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित देखा जाता है। आम, नारंगी, कटहल, ताड़, नारियल, जामुन, बेर, खजूर, सुपारी, आमड़ा, नीबू, केला, बेल और अनार आदि मनोहर वृक्ष-समूहों तथा सुपक्व फलों से लदे हुए दूसरे-दूसरे वृक्षों द्वारा उस वृन्दावन की अपूर्व शोभा हो रही है। प्रियाल, शाल, पीपल, नीम, सेमल, इमली तथा अन्य वृक्षों के शोभाशाली समुदाय उस वन में सब ओर सदा भरे रहते हैं। कल्पवृक्षों के समूह उस वन की शोभा बढ़ाते हैं। मल्लिका (मोतिया या बेला), मालती, कुन्द, केतकी, माधवी लता और जूही इत्यादि लताओं के समूह वहाँ सब ओर फैले हैं। मुने! वहाँ रत्नमय दीपों से प्रकाशित तथा धूप की गन्ध से सुवासित असंख्य कुंज-कुटीर उस वन में शोभा पाते हैं। उनके भीतर श्रृंगारोपयोगी द्रव्य संग्रहीत हैं। सुगन्धित वायु उन्हें सुवासित करती रहती है। वहाँ चन्दन का छिड़काव हुआ है। उन कुटीरों के भीतर फूलों की शय्याएँ बिछी हैं, जो पुष्पमालाओं की जाली से सुशोभित हैं। मधु-लोलुप मधुपों के मधुर गुंजारव से वृन्दावन मुखरित रहता है। रत्नमय अलंकारों की शोभा से सम्पन्न गोपांगनाओं के समूह से वह वन आवेष्टित है। करोड़ों गोपियाँ श्रीराधा की आज्ञा से उसकी रक्षा करती हैं। उस वन के भीतर सुन्दर-सुन्दर और मनोहर बत्तीस कानन हैं। वे सभी उत्तम एवं निर्जन स्थान हैं। मुने! वृन्दावन सुपक्व, मधुर एवं स्वादिष्ट फलों से सम्पन्न तथा गोष्ठों और गौओं के समूहों से परिपूर्ण है। वहाँ सहस्रों पुष्पोद्यान सदा खिले और सुगन्ध से भरे रहते हैं, उनमें मधुलोभी भ्रमरों के समुदाय मधुर गुंजन करते फिरते हैं। श्रीकृष्ण के तुल्य रूप वाले तथा उत्तम रत्न-हार से विभूषित पचास करोड़ गोपों के विविध विलासों से विलसित रमणीय वृन्दावन को देखते हुए वे देवेश्वरगण गोलोक धाम में जा पहुँचे, जो चारों ओर से गोलाकार तथा कोटि योजन विस्तृत है। वह सब ओर से रत्नमय परकोटों द्वारा घिरा हुआ है। मुने! उसमें चार दरवाजे हैं। उन दरवाजों पर द्वारपालों के रूप में विराजमान गोप-समूह उनकी रक्षा करते हैं। श्रीकृष्ण की सेवा में लगे रहने वाले गोपों के आश्रम भी रत्नों से जटित तथा नाना प्रकार के भोगों से सम्पन्न हैं। उन आश्रमों की संख्या भी पचास करोड़ है। इनके सिवा भक्त गोप-समूहों के सौ करोड़ आश्रम हैं, जिनका निर्माण पूर्वोक्त आश्रमों से भी अधिक सुन्दर है। वे सब-के-सब उत्तम रत्नों से गठित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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