ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 1
सौति बोले – मुने! आपके चरणारविन्दों का दर्शन मिल जाने से मेरे लिये सब कुशल-ही-कुशल है। इस समय मैं सिद्धक्षेत्र से आ रहा हूँ और नारायणाश्रम को जाता हूँ। यहाँ ब्राह्मण समूह को उपस्थित देख नमस्कार करने के लिये चला आया हूँ। साथ ही भारतवर्ष के पुण्यदायक क्षेत्र नैमिषारण्य का दर्शन भी मेरे यहाँ आगमन का उद्देश्य है। जो देवता, ब्राह्मण और गुरु को देखकर वेगपूर्वक उनके सामने मस्तक नहीं झुकाता है, वह ‘कालसूत्र’ नामक नरक में जाता है तथा जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता रहती है, तब तक वह वहीं पड़ा रहता है। साक्षात श्रीहरि ही भारतवर्ष में ब्राह्मण रूप से सदा भ्रमण करते रहते हैं। श्रीहरि-स्वरूप उस ब्राह्मण को कोई पुण्यात्मा ही अपने पुण्य के प्रभाव से प्रणाम करता है। भगवन! आपने जो कुछ पूछा है तथा आपको जो कुछ जानना अभीष्ट है, वह सब आपको पहले से ही ज्ञात है, तथापि आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर मैं इस विषय में कुछ निवेदन करता हूँ। पुराणों में सारभूत जो ब्रह्मवैवर्त नामक पुराण है, वही सबसे उत्तम है। वह हरि भक्ति देने वाला तथा सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञान की वृद्धि करने वाला है। यह भोग चाहने वालों को भोग, मुक्ति की इच्छा रखने वालों को मोक्ष तथा वैष्णवों को हरि भक्ति प्रदान करने वाला है। सबकी इच्छा पूर्ण करने के लिये यह साक्षात कल्पवृक्ष-स्वरूप है। इसके ब्रह्मखण्ड में सर्व बीज स्वरूप उस परब्रह्म परमात्मा का निरूपण है जिसका योगी, संत और वैष्णव ध्यान करते हैं तथा जो परात्पर-रूप है। शौनक जी! वैष्णव, योगी और अन्य संत महात्मा एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं। जीवधारी मनुष्य अपने ज्ञान के परिणाम स्वरूप क्रमशः संत, योगी और वैष्णव होते हैं। सत्संग से मनुष्य संत होते हैं। योगियों के संग से योगी होते हैं तथा भक्तों के संग से वैष्णव होते हैं। ये क्रमशः उत्तरोत्तर श्रेष्ठ योगी हैं। ब्रह्मखण्ड के अनन्तर प्रकृति खण्ड है, जिसमें देवताओं, देवियों और सम्पूर्ण जीवों की उत्पत्ति का कथन है। साथ ही देवियों के शुभ चरित्र का वर्णन है। जीवों के कर्मविपाक और शालग्राम-शिला के महत्त्व का निरूपण है। उन देवियों के कवच, स्तोत्र, मन्त्र और पूजा-पद्धति का भी प्रतिपादन किया गया है। उस प्रकृति खण्ड में प्रकृति के लक्षण का वर्णन है। उसके अंशों और कलाओं का निरूपण है। उनकी कीर्तिका और कीर्तन तथा प्रभाव का प्रतिपादन है। पुण्यात्माओं और पापियों को जो-जो शुभाशुभ स्थान प्राप्त होते हैं, उनका वर्णन है। पापकर्म से प्राप्त होने वाले नरकों तथा रोगों का कथन है। उनसे छूटने के उपाय का भी विचार किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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