ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 12
विष्णु ने कहा– शिवे! तुम तो जगत की बुद्धिस्वरूपा हो। क्या तुम नहीं जानतीं कि ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सारा जगत अपने कर्मानुसार फल भोगता है। प्राणियों का जो स्वकर्मार्जित भोग है, वह सौ करोड़ कल्पों तक प्रत्येक योनि में शुभ-अशुभ फलरूप से नित्य प्राप्त होता रहता है। सती! इन्द्र अपने कर्मवश कीड़े की योनि में जन्म ले सकते हैं और कीड़ा पूर्वकर्मफलानुसार इन्द्र भी हो सकता है। पूर्वजन्मार्जित कर्मफल के बिना सिंह मक्खी को भी मारने में असमर्थ है और मच्छर अपने प्राक्तन कर्म के बल से हाथी को भी मार डालने की शक्ति रखता है। सुख-दुःख, भय-शोक, आनन्द– ये कर्म के ही फल हैं। इनमें सुख और हर्ष उत्तम कर्म के और अन्य पाप कर्म के परिणाम हैं।[1]कर्म का भोग शुभ-अशुभ-रूप से इहलोक अथवा परलोक में प्राप्त होता है, परन्तु कर्मोपार्जन के योग्य पुण्यक्षेत्र भारत ही है। स्वयं श्रीकृष्ण कर्म के फलदाता, विधि के विधाता, मृत्यु के भी मृत्यु, काल के काल, निषेक के निषेककर्ता, संहर्ता के भी संहारक, पालक के भी पालक, परात्पर, परिपूर्णतम गोलोकनाथ हैं। हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिस पुरुष की कलाएँ हैं, महाविराट जिसका अंश हैं, जिसके रोम-विवर में जगत भरे हैं, कोई-कोई उनके कलांश हैं और कोई-कोई कलांश के भी अंश हैं और जो सम्पूर्ण चराचर जगत-स्वरूप हैं, उन्हीं श्रीकृष्ण में विनायक स्थित हैं। इस प्रकार श्रीविष्णु का कथन सुनकर पार्वती का मन संतुष्ट हो गया। तब वे उन गदाधर भगवान को प्रणाम करके शिशु को दूध पिलाने लगीं। तदनन्तर प्रसन्न हुई पार्वती ने शंकर जी की प्रेरणा से अंजलि बाँधकर भक्तिपूर्वक उन कमलापति भगवान विष्णु की स्तुति की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुखं दुःखं भयं शोकमानन्दं कर्मणः फलम्। सुकर्मणः सुखं हर्षमितरे पापकर्मणः।।-(गणपतिखण्ड 12। 27)
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