ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 55
रत्न निर्मित विचित्र कुण्डल उनके दोनों कानों की श्रीवृद्धि करते हैं। सूर्यप्रभा की प्रतिमारूप कपोल-युगल से वे सुशोभित होती हैं। अमूल्य रत्नों के बने हुए कण्ठहार उनके ग्रीवा-प्रदेश को विभूषित करते हैं। उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित किरीट-मुकुट उनकी उज्ज्वलता को जाग्रत किये रहते हैं। रत्नों की मुद्रिका और पाशक (चेन या पासा आदि) उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे मालती के पुष्पों और हारों से अलंकृत केशपाश धारण करती हैं। वे रूप की अधिष्ठात्री देवी हैं और गजराज की भाँति मन्द गति से चलती हैं। जो उन्हें अत्यन्त प्यारी हैं, ऐसी गोप-किशोरियाँ श्वेत चवँर लेकर उनकी सेवा करती हैं। कस्तूरी की बेंदी, चन्दन के बिन्दु और सिन्दूर की टीकी से उनके मनोहर सीमन्त का निम्नभाग अत्यन्त उद्दीप्त दिखायी देता है। रास में रासेश्वर के सहित विराजित रासेश्वरी राधा का मैं भजन करता हूँ।[1] इस प्रकार ध्यान कर मस्तक पर पुष्प अर्पित करके पुनः जगम्बा श्रीराधा का चिन्तन करे और फूल चढ़ावे। पुनः ध्यान के पश्चात् सोलह उपचार अर्पित करे। आसन, वसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, अनुलेपन, धूप, दीप, सुन्दर पुष्प, स्नानीय, रत्नभूषण, विविध नैवेद्य, सुवासित ताम्बूल, जल, मधुपर्क तथा रत्नमयी शय्या– ये सोलह उपचार हैं। राजा ने इनमें से प्रत्येक को वेद मन्त्र के उच्चारणपूर्वक भक्तिभाव से अर्पित किया। शिवे! इन उपचारों के समर्पण के लिये जो सर्वसम्मत मन्त्र हैं, उन्हें सुनो।
राधे! पूजा के अवसर पर विश्वकर्मा द्वारा रचित रमणीय श्रेष्ठ सिंहासन, जो रत्नसार का बना हुआ है, ग्रहण करो।[2]
देवि! बहुमूल्य रत्नों से जटित सूक्ष्म वस्त्र, जिसका मूल्य आँका नहीं जा सकता, आपकी सेवा में प्रस्तुत है। यह अग्नि से शुद्ध किया गया, चिन्मय एवं स्वभावतः निर्मल है। इसे स्वीकार करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वेतचम्पकवर्णाभां कोटिचन्द्रसमप्रभाम्। शरत्पार्वणचन्द्रास्यां शरत्पङ्कजलोचनाम् ।। सुश्रोणीं सुनितम्बां च पक्व बिम्बाधरां वराम् ।। मुक्तापङ्क्तिविनिन्द्यैकदन्तपङ्क्तिमनोहराम्। ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां भक्तानुग्रहकातराम्।। वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नमालाविभूषिताम्।। रत्नकेयूरवलयां रत्नमञ्जीररञ्जिताम्। रत्नकुण्डलयुग्मेन विचित्रेण विराजिताम्।। सूर्यप्रभाप्रतिकृतिगण्डस्थलविराजिताम्।। अमूल्यरत्ननिर्माणग्रैवेयकविभूषित। सद्रत्नसारनिर्माणकिरीटमुकुटोज्ज्वलाम्।। रत्नाङ्गलीयसंयुक्तां रत्नपाशकशोभिताम्।। बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यभूषिताम्। रूपाधिष्ठातृदेवीं च गजेन्द्रमन्दगामिनीम्।। गोपीभिः सुप्रियाभिश्च सेवितां श्वेतचामरैः। कस्तूरीविन्दुभिः सार्द्धमधश्चन्दनबिन्दुना।। सिन्दूरबिन्दुना चारुसीमन्ताधःस्थलोज्ज्वलाम्। रासे रासेश्वरयुतां राधां रासेश्वरीं भजे।।-(प्रकृतिखण्ड 55। 10-15, 19)
- ↑ आसन आदि के स्थान पर साधारण लोग पुष्प आदि का आसन तथा अन्य उपचार, जो सर्वसुलभ हैं, दे सकते हैं; परंतु मानसिक भावना द्वारा उसे रत्नसिंहासन आदि मानकर ही अर्पित करें। इस भावना के अनुसार ये पूजा सम्बन्धी मन्त्र हैं। मानसिक भावना द्वारा उत्तम-से-उत्तम वस्तु इष्टदेव को अर्पित की जा सकती है।
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |