ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 32-33
भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों से मेरे दूत इस प्रकार डरते हैं जैसे गरुड़ से सर्प। मेरा दूत जब हाथ में पाश लेकर मर्त्यलोक की ओर जाता है, तब मैं चेतावनी देते हुए उससे कहता हूँ- ‘दूत! तुम भगवान विष्णु के भक्त का आश्रम छोड़कर और सब जगह जा सकोगे।’ श्रीकृष्ण-मन्त्र के उपासकों के नाम भी यमलोक वासियों को काट खाते हैं। चित्रगुप्त भयभीत- से हो दोनों हाथ जोड़कर उनका स्वागत करते हैं। ब्रह्मा जी उनके लिए मधुपर्क आदि निवेदन करते हैं; क्योंकि वे ब्रह्मलोक को लाँघकर गोलोक में जाने वाले होते हैं। उनके स्पर्श मात्र से प्राणियों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे प्रज्वलित अग्नि में पड़कर तृण और काष्ठ भस्म हो जाते हैं। उन्हें देखकर मोह भी अत्यन्त भयभीत-सा होकर सम्मोह को प्राप्त होता है। काम, क्रोध, लोभ, मृत्यु, जरा, शोक, भय, काल, शुभाशुभ कर्म, हर्ष, तथा भोग- ये सभी हरि भक्तों को देखकर प्रभावशून्य हो जाते हैं। पतिव्रते! जो यम यातना में नहीं पड़ते, उनका परिचय दिया गया। अब आगम के अनुसार देह का विवरण बता रहा हूँ, सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच तत्त्व स्रष्टा के सृष्टि-विधान में देहधारियों की देह के बीज[1] हैं। पृथ्वी आदि पाँच भूतों से जो देह निर्मित होता है, वह कृत्रिम है। अतएव नश्वर है। इसीलिए वह यहीं भस्म हो जाता है। बँधी हुई मुट्ठी में अँगूठे की जितनी लम्बाई होती है, उतना ही बड़ा जो पुरुषाकार जीव है, वही कर्मों के भोग के लिए सूक्ष्म ‘यातनादेह’ को धारण करता है। वह देह मेरे लोक में नरक की प्रज्वलित आग में डाली जाने पर भी जलकर भस्म नहीं होती। जल में भी गलती नहीं है। दीर्घकाल तक घातक प्रहार करने पर भी उसका नाश नहीं होता है। अस्त्र, शस्त्र, तीखे कण्टक, खौलते हुए तेल या जल, तपाये हुए लौह, गरम पत्थर तथा तपाकर लाल की हुई लोहे की प्रतिमा से स्पर्श होने पर और ऊँचे से नीचे गिरने पर भी वह यातना-शरीर न तो दग्ध होता है, न टेढ़ा-मेढ़ा ही होता है। केवल संताप भोगता है।[2] देवि! आगमों के कथनानुसार[3] यातना-देह का सारा वृत्तान्त तथा कारण बताया गया। अब मैं तुमसे नरक-कुण्डों के लक्षण बता रहा हूँ, सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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