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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 43
शिव का सती के शव को लेकर शोकवश समस्त लोकों का भ्रमण, भगवान विष्णु का उन्हें समझाना और प्रकृति की स्तुति के लिये कहना, शिव द्वारा की हुई स्तुति से संतुष्ट हुई प्रकृतिरूपिणी सती का शिव को दर्शन एवं सान्त्वना देना श्री नारायण कहते हैं– नारद! तदनन्तर महादेव जी ने गंगाजी के तट पर सोयी हुई दुर्गास्वरूपा सती की मनोहर मूर्ति देखी, जिसके मुखारविन्द की कान्ति अभी मलिन नहीं हुई थी। वह शरीर पर श्वेत वस्त्र धारण किये और हाथ में अक्षमाला लिये दिव्य तेज से प्रकाशित हो रही थी। उसके अंगों के तपाये हुए सुवर्ण की-सी कमनीय कान्ति फैल रही थी। सती के उस प्राणहीन शरीर को देखकर भगवान शिव विरह की आग से जलने लगे। वे मूर्तिमान तत्त्वराशि होने पर भी सती के वियोग में कभी मूर्च्छित, कभी चेतन होते हुए भाँति-भाँति से विलाप करने लगे। तदनन्तर उनके स्वर्णप्रतिम मृत देह को वक्ष पर धारण करके सप्तद्वीप, लोकालोक पर्वत तथा सप्तसिन्धु में भ्रमण करते हुए भारत में शतश्रृंग-गिरि के पास जम्बूद्वीप में निर्जन प्रदेशस्थ अक्षयवट के नीचे नदी तीर पर पहुँचे। वहाँ से महायोगी शंकर विरहा कुलचित्त होकर पूरे एक वर्ष तक पृथ्वी पर परिभ्रमण करते रहे। सती देवी के उस मृत देह के अंग-प्रत्यंग जिस-जिस स्थान पर गिरे, वे स्थान कामनाप्रद सिद्धपीठ हो गये। तदनन्तर शंकर ने सती के अवशिष्ट अंगों का संस्कार किया। अस्थियों की माला गूँथकर उसे अपना कण्ठभूषण बना लिया और प्रतिदिन सती का शरीर-भस्म अपने शरीर पर लगाने लगे। इसके बाद वे निश्चेष्ट-से होकर एक वटमूल में पड़ गये। तब लक्ष्मी पूजित भगवान नारायण अपने पार्षदों, देवताओं और ऋषि-मुनियों के साथ वहाँ पधारकर श्री शंकर को गोद में लेकर उन्हें समझाने लगे। श्री भगवान ने कहा– स्वात्माराम शिव! मेरी बात सुनो और उस पर ध्यान दो। वह हितकारक, अध्यात्मज्ञान का सार, दुःख-शोक का नाश करने वाली तथा सम्पूर्ण अध्यात्मज्ञान का विद्यमान बीज है। यद्यपि तुम स्वयं ज्ञान की निधि, विधि, सर्वज्ञ तथा स्रष्टाओं के भी स्रष्टा हो, तथापि मैं तुम्हें ज्ञान का उपदेश दे रहा हूँ। प्राण-संकट के समय विद्वान पुरुष विद्वान को भी समझा सकता है। लोक में यह व्यवहार है कि सब लोग सबको परस्पर समझाते-बुझाते हैं। शम्भो! महेश्वर! दुर्दिन में दुःख शोक और भय की प्राप्ति होती है। जब दुर्दिन बीत जाता और सुदिन आ जाता है, तब उनकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? उस समय तो हर्ष और ऐश्वर्य विषयक दर्प की ही निरन्तर वृद्धि होती है; परंतु विद्वान पुरुष इन सबको स्वप्न की भाँति मिथ्या समझते हैं। महादेव! तुम ज्ञान की उत्पत्ति के कारण तथा सनातन हो। ज्ञान प्राप्त करो– अपने स्वरूप का स्मरण करो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम सचेत होओ– होश में आओ। निश्चय ही तुम्हें सती की प्राप्ति होगी। जैसे शीतलता जल को, दाहिका शक्ति अग्नि को, तेज सूर्य को तथा गन्ध पृथ्वी को कभी नहीं छोड़ती है; उसी तरह सती तुम्हें छोड़कर अलग नहीं रह सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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