ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 52
वाल्मीकि ने कहा– राजन! जैसे अभी तरुओं में सर्वत्र वृक्षत्व है, कहीं भी वृक्षत्व का त्याग नहीं है, उसी तरह सम्पूर्ण पापों में कृतघ्नता है। जो काम, क्रोध तथा भय के कारण झूठी गवाही देता है तथा सभा में पक्षपातपूर्वक बात करता है, वह कृतघ्न माना गया है। राजन! जो पुण्यमात्र का हनन करता है, वह भी कृतघ्न ही है। सर्वत्र सबके पुण्य की हानि में कृतघ्नता निहित है। नरेश्वर! जो भारतवर्ष में झूठी गवाही देता या पक्षपातपूर्ण बात करता है, वह निश्चय ही बहुत लंबे समय तक सर्पकुण्ड में निवास करता है। सदा उसके शरीर में साँप लिपटे रहते हैं; वह डरा रहता है और साँप उसे खाये जाते हैं। यमदूतों की मार पड़ने पर वह साँपों का मल-मूत्र खाने को विवश होता है। तदनन्तर भारत में सात-सात जन्मों तक वह अपनी सात पीढ़ी के पूर्वजों सहित गिरगिट और मेढक होता है। इसके बाद विशाल वन में सेमल का वृक्ष होता है। तत्पश्चात् गूँगा मनुष्य एवं शूद्र होकर वह शुद्धि-लाभ करता है। आस्तीक बोले– गुरुपत्नी गमन करने पर मानव मातृगामी समझा जाता है। मातृगमन करने पर मनुष्यों के लिये प्रायश्चित्त नहीं मिलता। नृपश्रेष्ठ! भारतवर्ष में मातृगामी पुरुषों को जो दोष प्राप्त होता है, वह शूद्रों को ब्राह्मणी के साथ समागम करने पर लगता है। यदि ब्राह्मणी शूद्र के साथ मैथुन करे तो उसे भी उतना ही दोष प्राप्त होता है। कन्या, पुत्रवधू, सास, गर्भवती भौजाई और भगिनी के साथ समागम करने पर भी वैसा ही दोष लगता है। राजेन्द्र! अब ब्रह्मा जी के बताये अनुसार दोष का निरूपण करूँगा। जो महापापी मानव इन सबके साथ मैथुन करता है वह जीते-जी ही मृतक-तुल्य हो जाता है, चाण्डाल एवं अस्पृश्य समझा जाता है। उसे सूर्यमण्डल के दर्शन का भी अधिकार नहीं होता। वह शालग्राम का, उनके चरणामृत का, तुलसीदल मिश्रित जल का, सम्पूर्ण तीर्थजल का तथा ब्राह्मणों के चरणोदक का स्पर्श भी नहीं कर सकता। वह पात की मनुष्य विष्ठा के तुल्य घृणित होता है। उसे देवता, गुरु और ब्राह्मण को नमस्कार करने का भी अधिकार नहीं रह जाता है। उसका जल मूत्र से भी अधिक अपवित्र होता है। भारत में पृथ्वी उसके भार से दब जाती है। वह उसके बोझ को ढोने में असमर्थ हो जाती है। बेटी बेचने वाले पापी की भाँति गुरुपत्नी गामी के पाप से भी सारा देश पतित हो जाता है। उसके स्पर्श से, उसके साथ वार्तालाप करने से, सोने से, एक स्थान में रहने और साथ-साथ भोजन करने से मनुष्यों को पाप लगता है। वह कुम्भीपाक में निवास करता है। वहाँ उसे दिन-रात अविरामगति से चक्र की भाँति घूमना पड़ता है। वह आग की लपटों से जलता और यमदूतों द्वारा पीटा जाता है। इस प्रकार वह महापापी प्रतिदिन नरक-यातना भोगता है। घोर प्राकृतिक महाप्रलय बीतने पर जब पुनः सृष्टि का आरम्भ होता है तो वह फिर वैसा ही हो जाता है। नरक-यातना के पश्चात् हजारों वर्षों तक उसे विष्ठा का कीड़ा होना पड़ता है। तदनन्तर उसे वह पत्नीहीन नपुंसक चाण्डाल होता है। तत्पश्चात् उसे सात जन्मों तक गलित कोढ़ से युक्त शूद्र एवं नपुंसक होना पड़ता है। इसके बाद वह कोढ़ी, अन्धा एवं नपुंसक ब्राह्मण होता है। इस प्रकार सात जन्म धारण करने के पश्चात् उस महापापी की शुद्धि होती है। मुनि बोले– इस प्रकार हमने शास्त्र के अनुसार सब बातें बतायीं। राजन! तुम इन विप्रवर को प्रणाम करो और निश्चय ही इन्हें अपने घर को लौटा ले चलो। वहाँ यत्नपूर्वक ब्राह्मण-देवता का पूजन करके इनका आशीर्वाद लो। महाराज! इसके बाद शीघ्र ही वन को जाओ और तपस्या करो। ब्राह्मण के शाप से छुटकारा मिलने पर फिर यहाँ आओगे। पार्वति! ऐसा कहकर सब मुनि, देवता, राजा तथा बन्धुवर्ग के लोग तुरंत अपने-अपने स्थान को चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |