श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
इस भूल को मिटाने में यह जीव असमर्थ नहीं है, निर्बल नहीं है, अपात्र नहीं है। केवल संयोजन्य सुख की लोलुपता के कारण यह अपने में असामर्थ्य का आरोप कर लेता है और इसी से मनुष्य जन्म के महान लाभ से वंचित रह जाता है। अतः मनुष्यजन्म को सार्थक बनाने के लिए नित्य-निरंतर उद्यत रहना चाहिए। छठे अध्याय के अंत में भगवान ने पहले योगी की महिमा कही और पीछे अर्जुन को योगी हो जाने की आज्ञा दी;[1] और यहाँ भगवान ने पहले अर्जुन को योगी होने की आज्ञा दी और पीछे योगी की महिमा कही। इसका तात्पर्य है कि छठे अध्याय में योगभ्रष्ट का प्रसंग है, और उसके विषय में अर्जुन के मन में संदेह था कि वह कहीं नष्ट-भ्रष्ट तो नहीं हो जाता? इस शंका को दूर करने के लिए भगवान ने कहा कि ‘कोई किसी तरह से योग में लग जाए तो उसका पतन नहीं होता। इतना ही नहीं, इस योग का जिज्ञासुमात्र भी शब्द ब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है।’ इसलिए योगी की महिमा पहले कही और पीछे अर्जुन के लिए योगी होने की आज्ञा दी। परंतु यहाँ अर्जुन का प्रश्न रहा कि नियतात्मा पुरुषों के द्वारा आप कैसे जानने में आते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि ‘जो सांसारिक पदार्थों से सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होता है, उस योगी के लिए मैं सुलभ हूँ’, इसलिए पहले ‘तू योगी हो जा’ ऐसी आज्ञा दी और पीछे योगी की महिमा कही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज