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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
3. कार्य को भगवान का ही समझना- इसमें काम धंधा करते हुए भी एक विलक्षण आनंद रहता है कि ‘मेरा अहोभाग्य है कि मैं भगवान का ही काम करता हूँ, भगवान की ही सेवा करता हूँ!’ अतः इसमें भगवान की स्मृति विशेषता से रहती है। जैसे, कोई सज्जन अपनी कन्या के विवाह-कार्य के समय कन्या के लिए तरह-तरह की वस्तुएँ खरीदता है, तरह-तरह के कार्य करता है, अनेक व्यक्तियों को निमंत्रण देता है; परंतु अनेक प्रकार के कार्य करते हुए भी ‘कन्या का विवाह करना है’- यह बात उसको निरंतर याद रहती है। कन्या में भगवान के समान पूज्यभावपूर्वक संबंध नहीं होता तो भी उसके विवाह के लिए कार्य करते हुए उसकी याद निरंतर रहती है, फिर भगवान के लिए कार्य करते हुए भगवान की पूज्यभावसहित अपनेपन की मीठी स्मृति निरंतर बनी रहे- इसमें कहना ही क्या है!
भगवत्संबंधी कार्य दो तरह का होता है-
- स्वरूप से- भगवान के नाम का जप और कीर्तन करना; भगवान की लीला का श्रवण, चिन्तन, पठन-पाठन आदि करना- यह स्वरूप से भगवत्संबंधी काम है।
- भाव से- संसार का काम करते हुए भी ‘जब संसार भगवान का है, तब संसार का काम भी भगवान ही काम हुआ। इसको भगवान के नाते ही करना है, भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करना है। इस काम से हमें कुछ लेना नहीं है। भगवान ने हमें जिस वर्ण में पैदा किया है, जिस आश्रम में रखा है, उसमें भगवान की आज्ञा के अनुसार उचित काम करना है’- ऐसा भाव रहने से वह काम सांसारिक होने पर भी भगवान का हो जाता है।
[सातवें अध्याय के अंत में भगवान ने सात बातें कही थीं; उन्हीं सात बातों पर अर्जुन ने आठवें अध्याय के आरंभ में सात प्रश्न किए और यह प्रकरण भी सात ही श्लोकों में समाप्त हुआ।]
संबंध- पूर्वश्लोक में कही हुई अभ्यासजन्य स्मृति का अब आगे के श्लोक में वर्णन करते हैं।
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