श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् । अर्थ- हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्षरभाव अर्थात नाशवान पदार्थ को अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्मजी अधिदैव हैं और इस देह में अंतर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ। व्याख्या- ‘अधिभूतं क्षरो भावः’- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन पंचमहाभूतों से बनी प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान सृष्टि को अधिभूत कहते हैं। ‘पुरुषश्चाधिदैवताम्’- यहाँ ‘अधिदैवत’ (अधिदैव) पद आदि पुरुष हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का वाचक है। महासर्ग के आदि में भगवान के संकल्प से सबसे पहले ब्रह्मा जी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सर्ग के आदि में सब सृष्टि की रचना करते हैं। ‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर’- हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस देह में अधियज्ञ मैं ही हूँ अर्थात इस मनुष्यशरीर में अंतर्यामीरूप से मैं ही हूँ।[1] भगवान ने गीता में ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’[2], ‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः[3], ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’[4] आदि में अपने को अंतर्यामीरूप से सबके हृदय में विराजमान बताया है। ‘अहमेव अत्र[5] देहे’ कहने का तात्पर्य है कि दूसरी योनियों में तो पूर्वकृत कर्मों का भोग होता है, नये कर्म नहीं बनते, पर इस मनुष्य शरीर में नये कर्म भी बनते हैं। उन कर्मों के प्रेरक अंतर्यामी भगवान होते हैं।[6] जहाँ मनुष्य राग-द्वेष नहीं करता उसके सब कर्म भगवान की प्रेरणा के अनुसार शुद्ध होते हैं अर्थात बंधनकारक नहीं होते और जहाँ वह राग-द्वेष के कारण भगवान की प्रेरणा के अनुसार कर्म नहीं करता, उसके कर्म बंधनकारक होते हैं। कारण कि राग और द्वेष मनुष्य के महान शत्रु हैं।[7] तात्पर्य यह हुआ कि भगवान की प्रेरणा से कभी निषिद्ध-कर्म होते ही नहीं। श्रुति और स्मृति भगवान की आज्ञा है- ‘श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञे।’ अतः भगवान श्रुति और स्मृति के विरुद्ध प्रेरणा कैसे कर सकते हैं? नहीं कर सकते। निषिद्ध कर्म तो मनुष्य कामना के वशीभूत होकर ही करता है।[8] अगर मनुष्य कामना के वशीभूत न हो, तो उसके द्वारा स्वाभाविक ही विहित कर्म होंगे, जिनको अठारहवें अध्याय में सहज, स्वभावनियत कर्म नाम से कहा गया है। यहाँ अर्जुन के लिए ‘देहभूतां वर’ कहने का तात्पर्य है कि देहधारियों में वहीं मनुष्य श्रेष्ठ है, जो ‘इस देह में परमात्मा हैं’- ऐसा जान लेता है। ऐसा ज्ञान न हो, तो भी ऐसा मान ले कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर के कण-कण में परमात्मा हैं और उनका अनुभव करना ही मनुष्य जन्म का खास ध्येय है। इस ध्येय की सिद्धि के लिए परमात्मा की आज्ञा के अनुसार ही काम करना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ इस मनुष्य-शरीर में कहने का तात्पर्य है कि इसमें भगवान की प्रेरणा को समझने की, स्वीकार करने की और उसके अनुसार आचरण करके तत्त्व को प्राप्त करने की सामर्थ्य है। अन्य शरीरों में अंतर्यामी रूप से परमात्मा के रहते हुए भी उन प्राणियों में उस तत्त्व की तरफ दृष्टि डालने की सामर्थ्य नहीं है और मनुष्य शरीर में जो विवेक प्राप्त है, वह विवेक उन शरीरों में जाग्रत नहीं है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह इस शरीर के रहते-रहते उस तत्त्व को प्राप्त कर ले। इस दुर्लभ अवसर को व्यर्थ न जाने दे।
- ↑ गीता 13:17
- ↑ गीता 15:15
- ↑ गीता 18:61
- ↑ दूसरे श्लोक में तो ‘अत्र’ पद प्रकरण के लिए आया है, तथा ‘अस्मिन्’ पद देह के लिए आया है, पर यहाँ ‘अत्र’ पद देह के लिए ही आया है। कारण कि अर्जुन ने प्रश्न में ‘अत्र’ पद देकर प्रकरण का संकेत कर दिया है, इसलिए अब उसका उत्तर देते हुए प्रकरण के लिए ‘अत्र’ पद देने की जरूरत नहीं हैं।
- ↑ कर्मों के प्रेरणा भगवान मनुष्य के स्वभाव के अनुसार करते हैं। यदि स्वभाव में राग-द्वेष है तो उस राग-द्वेष के वशीभूत होना अथवा न होना मनुष्य के हाथ में है। वह शास्त्र, संत तथा भगवान का आश्रय लेकर अपने स्वभाव को बदल सकता है।
- ↑ गीता 3:34
- ↑ गीता 3:37
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