श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । अर्थ- श्रीभगवान बोले- परम अक्षर ब्रह्म है और जीव का अपना जो होनापन है, उसको अध्यात्म कहते हैं। प्राणियों का उद्भभव करने वाला जो त्याग है, उसकी कर्म संज्ञा है। व्याख्या- ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’- परम अक्षर का नाम ब्रह्म है। यद्यपि गीता में ‘ब्रह्म’ शब्द प्रणव, वेद, प्रकृति आदि का वाचक भी आया है, तथापि यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द के साथ ‘परम’ और ‘अक्षर’ विशेषण देने से यह शब्द सर्वोपरि, सच्चिदानंदघन, अविनाशी, निर्गुण-निराकार परमात्मा का वाचक है। ‘स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते’- अपने भाव अर्थात होनेपन का नाम स्वभाव है- ‘स्वो भावः स्वभावः।’ इसी स्वभाव को ‘अध्यात्म’ कहा जाता है अर्थात जीवमात्र के होनेपन का नाम ‘अध्यात्म’ है। ऐसे तो आत्मा को लेकर जो वर्णन किया जाता है, वह भी अध्यात्म है; अध्यात्म-मार्ग का जिसमें वर्णन हो, वह मार्ग भी अध्यात्म है और इस आत्मा की जो विद्या है, उसका नाम भी अध्यात्म है।[1] परंतु यहाँ ‘स्वभाव’ विशेषण के साथ ‘अध्यात्म’ शब्द आत्मा का अर्थात जीव के होनेपने का (स्वरूप का) वाचक है। ‘भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः’- स्थावर-जंगम जितने भी प्राणी देखने में आते हैं, उनका जो भाव अर्थात होनापन है, उस होनेपन को प्रकट करने के लिए जो विसर्ग अर्थात त्याग है, उसको ‘कर्म’ कहते हैं। महाप्रलय के समय प्रकृति की अक्रिय-अवस्था मानी जाती है तथा महासर्ग के समय प्रकृति की सक्रिय अवस्था मानी जाती है। इस सक्रिय-अवस्था का कारण भगवान का संकल्प है कि ‘मैं एक ही बहुत रूपों से हो जाऊँ।’ इसी संकल्प से सृष्टि की रचना होती है। तात्पर्य है कि महाप्रलय के समय अहंकार और संञ्चित कर्म के सहित प्राणी प्रकृति में लीन हो जाते हैं और उन प्राणियों के सहित हुई प्रकृति को विशेष क्रियाशील करने के लिए भगवान का पूर्वोक्त संकल्प ही विसर्ग अर्थात त्याग है। भगवान का यह संकल्प ही कर्मों का आरंभ है, जिससे प्राणियों की कर्म-परंपरा चल पड़ती है। कारण कि महाप्रलय में प्राणियों के कर्म नहीं बनते, प्रत्युत उसमें प्राणियों की सुषुप्त-अवस्था रहती है। महासर्ग के आदि से कर्म शुरू हो जाते हैं। चौदहवें अध्याय में आया है- परमात्मा की मूल प्रकृति का नाम ‘महद्ब्रह्म’ है। उस प्रकृति में लीन हुए जीवों का प्रकृति के साथ विशेष संबंध करा देना अर्थात जीवों का अपने-अपने कर्मों के फलस्वरूप शरीरों के साथ संबंध करा देना ही परमात्मा के द्वारा प्रकृति में गर्भ-स्थापन करना है।[2] उसमें भी अलग-अलग योनियों में तरह-तरह के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन शरीरों की उत्पत्ति में प्रकृति हेतु है और उनमें जीवरूप से भगवान का अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।[3] इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के अंश से संपूर्ण प्राणी पैदा होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 10:32
- ↑ गीता 14।3-4
- ↑ गीता 15:7
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