श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म् । व्याख्या- ‘चंचल हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्’- यहाँ भगवान को ‘कृष्ण’ संबोधन देकर अर्जुन मानो यह कह रहे हैं कि हे नाथ! आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो यह मन लग सकता है। मेरे से तो इसका वश में होना बड़ा कठिन है। क्योंकि यह मन बड़ा ही चंचल है। चंचलता के साथ-साथ यह ‘प्रमाथि’ भी है अर्थात यह साधक को अपनी स्थिति से विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान भी है। भगवान ने ‘काम’- (कामना) के रहने के पाँच स्थान बताये हैं- इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, विषय और स्वयं।[1] वास्तव में काम स्वयं में अर्थात चिज्जड़ ग्रंथि में रहता है और इंद्रियाँ, मन, बुद्धि तथा विषयों में इसकी प्रतीति होती है। काम जब तक स्वयं से निवृत्ति नहीं होता, तब तक यह काम समय-समय पर इंद्रियों आदि में प्रतीत होता रहता है। पर जब यह स्वयं से निवृत्त हो जाता है, तब इंद्रियों आदि में भी यह नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक स्वयं में काम रहता है, तब तक मन साधक को व्यथित करता रहता है। अतः यहाँ मन को ‘प्रमाथि’ बताया गया है। ऐसे ही स्वयं में काम रहने के कारण इंद्रियाँ साधक के मन को व्यथित करती रहती हैं। इसलिए दूसरे अध्याय के साठवें श्लोक में इंद्रियों को भी प्रमाथि बताया गया है- ‘इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसंभ मनः’। तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इंद्रियों में आती है, तब वह साधक को महान व्यथित कर देती है, जिससे साधक अपनी स्थिति पर नहीं रह पाता। उस काम के स्वयं में रहने के कारण मन का पदार्थों के प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है। इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जाने को छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मन को दृढ़ कहा है। मन की यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है; अतः मन को ‘बलवत्’ कहा है। तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान है, जो कि साधक को जबर्दस्ती विषयों में ले जाता है। शास्त्रों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मन ही मनुष्यों के मोक्ष और बंधन में कारण है- ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।’ परंतु मन में यह प्रमथनशीलता, दृढ़ता और बलवत्ता तभी तक रहती है, जब तक साधक अपने में से काम को सर्वथा निकाल नहीं देता। जब साधक स्वयं कामरहित हो जाता है, तब पदार्थों का विषयों का कितना ही संसर्ग होने पर भी साधक पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। फिर मन की प्रमथनशीलता आदि नष्ट हो जाती है। मन की चंचलता भी तभी तक बाधक होती है, जब तक स्वयं में कुछ भी काम का अंश रहता है। काम का अंश सर्वथा निवृत्त होने पर मन की चंचलता किञ्चिन्मात्र भी बाधक नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 3।40; 3।34; 2।59
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